ग़ज़ल
आग से था खेलने का शौक पर हम डर गये |
मौत को जब सामने देखा तो खुद ही मर गये ||
उम्र भर जो साथ देने के लिए घर से चले,
शाम ही जो होने आयी, थक के अपने घर गये ||
रोज़ सुबहो-शाम मिट्टी, खून से भींगी रही,
पर हुआ बलिदान जिनका, फालतू वो सर गये ||
बोलियाँ देते रहे जो हमको लड़ने के लिए,
सामने दुश्मन दिखा तो खुद किनारा कर गये ||
भाग्य ही शायद बुरा था, आदमी की ज़ात का,
जो भी बोया पेड़ उसने, उसके पत्ते झड गये ||
रचनाकार- अभय दीपराज
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