ग़ज़ल
चक्र प्रगति का ऐसा घूमा जगत आज श्मशान हुआ है |
ढूंढ - ढूंढ कर यहाँ बसेरा धर्म आज हलकान हुआ है ||
कहाँ न्याय का मंदिर, मंदिर ? सेवा भाव कहाँ अब सेवा ?
ख़ूनी पंजों के नाखूनों पर हमको अभिमान हुआ है ||
अब विश्वास विषैला होकर, बन विश्वास-घात मिलता है,
मानव मन ही, मानवता के भावों से अनजान हुआ है ||
धरती, अम्बर और सागर का बंटवारा करते - करते,
हवस स्वार्थ का बढा और मन चिंतन से वीरान हुआ है ||
भूल गए कर्त्तव्य आज हम, कुल का गौरव बनने का,
वो संतान बने हम जिनसे हर माँ का अपमान हुआ है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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