9 सितम्बर 1947 की मध्यरात्रि को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा सरदार पटेल को सूचना दी गई कि 10 सितम्बर को संसद भवन उड़ा कर व सभी मन्त्रियों की हत्या करके लाल किले पर पाकिस्तानी झण्डा फहरा देने की दिल्ली के मुसलमानों की योजना है। सूचना क्योंकि संघ की ओर से थी, इसलिये अविश्वास का प्रश्न नहीं था। पटेल तुरंत हरकत में आए और सेनापति आकिन लेक को बुला कर सैनिक स्थिति के बारे में पूछा। उस समय दिल्ली में बहुत ही कम सैनिक थे। आकिनलेक ने कहा कि आस-पास के क्षेत्रों में तैनात सैनिक टुकड़ियों को दिल्ली बुलाना भी खतरे से खाली नहीं है। कुल मिलाकर आकिन लेक का तात्पर्य यह था कि इतनी जल्दी भी नहीं किया जा सकता, इसके लिये समय चाहिए। यह सारी वातीसराय माउंटबैटन के सामने ही हो रही थी। लेकिन पटेल तो पटेल ही थे। उन्होंने आकिनलेक को कहा-“विभिन्न छावनियों को को संदेश भेजो, उनके पास जितनी जितनी भी टुकड़ियाँ फालतू हो सकती है, उन्हें दिल्ली तुरंत दिल्ली भेजें।” आखिर ऐसा ही किया गया। उसी दिन शाम से टुकड़ियाँ आनी शुरू हो गई। अगले दिन तक पर्याप्त टुकड़ियां दिल्ली पहुंच चुकी थी।
सैनिक कार्यवाही
सैनिक कार्यवाही आरम्भ हुई। दिल्ली के जिन-जिन स्थानों के बारे में संघ ने सूचना दी थी, उन सभी स्थानों पर एक साथ छापे और जगह से बड़ी मात्रा में शस्त्रास्त्र बरामद हुए। पहाड़गंज की मस्जिद, सब्ज़ी मंडी मस्जिद तथा मेहरौली की मस्जिद से सबसे अधिक शस्त्र मिले l अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने स्टेन गनों तथा ब्रेन से मुकाबला किया, लेकिन सेना के सामने उनकी एक न चली। सबसे कड़ा मुकाबला हुआ सब्जी मण्डी क्षेत्र में स्थित ‘काकवान बिल्डिंग’ में । इस एक बिल्डिंग पर कब्जा करने में सेना को चौबीस घण्टों से भी अधिक समय लगा l
मेहरौली की मस्जिद से भी स्टेनगनों व ब्रेनगनों से सेना का मुकाबला किया गया । चार-पांच घंटे के लगातार संघर्ष के बाद ही सेना उस मस्जिद पर कब्जा कर सकी।
तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी के अनुसार _
“मुसलमानों ने हथियार एकत्र कर लिए थे। उनके घरों की तलाशी लेने पर बम आग्नेयास्त्र और गोला बारूद के भण्डार मिले थे। स्टेनगन, ब्रेनगन, मोटोर और वायर लेस ट्रांसमीटर बड़ी मात्रा में मिले। इनको गुप्तरूप से बनाने वाले कारखाने भी पकड़े गए।
अनेक स्थानों पर घमासान लड़ाई हुई, जिसमें इन हथियारों का खुल कर प्रयोग हुआ। पुलिस में मुसलमानों की भरमार थी। इस कारण दंगे को दबाने में सरकार को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा।इन पुलिस वालों में से अनेक तो अपनी वर्दी व हथियार लेकर ही फरार हो गए और विद्रोहियों से मिल गए। शेष जो बचे थे, उनकी निष्ठा भी संदिग्ध थी। सरकार को अन्य प्रान्तों से पुलिस व सेना बुलानी पड़ी।” (कृपलानी, गान्धी, पृष्ठ 292-293)
मुसलमान सरकारी अधिकारी थे योजनाकार
_दिल्ली पर कब्जा करने की योजना बनाने वाले कौन थे ये लोग? ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। इनमें बड़े – बड़े मुसलमान सरकारी अधिकारी थे, जिन पर भारत सरकार को बड़ा विश्वास था। इनमें उस समय के दिल्ली के बड़े पुलिस अधिकारी तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी थे, जोकि मुसलमान थे।
एक-एक पहलू को अच्छी तरह सोच-विचार करके लिख लिया गया था और वे लिखित कागज-पत्र विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की ही कोठी में एक तिजौरी सुरक्षित में रख लिए गए थे।
उन दिनों मुसलमान बनकर मुस्लिम अधिकारियों की गुप्तचरी करने वाले संघ के स्वयंसेवकों को इसकी जानकारी मिल गई और उन्होंने संघ अधिकारियों को सूचित किया। संघ अधिकारियों ने योजना के कागजात प्राप्त करने का दायित्व एक खोसला नाम के स्वयंसेवक को सौंपा।
खोसला ने उपयुक्त स्वयंसेवकों की एक टोली तैयार की और सभी मुसलमानी वेश में रात को विश्वविद्यालय के उस अधिकारी की कोठी पर पहुँच गए। मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ता वहाँ पहरा दे रहे थे। खोसला ने उन्हें ‘वालेकुम अस्सलाम’ किया और कहा- “हम अलीगढ़ से आए हैं। अब यहाँ पहरा देने की हमारी ड्यूटी लगी है। आप लोग जाकर सो जाओ।” वे लोग चले गए।
कोठी से तिजौरी ही उठा लाए_ खोसला के लोग कोठी से उस तिजौरी को ही निकाल कर ट्रक पर रख कर ले गए। उसमें से वे कागज निकाल कर देखे गए तो सब सन्न रह गए।
नई दिल्ली में आजकल जो संसद सदस्यों की कोठियाँ हैं, इन्हीं में से ही किसी कोठी में रात को कुछ स्वयंसेवक सरकारी अधिकारियों की बैठक बुलाई गई और दिल्ली पर कब्जे की उन कागजों में अभिलेखित योजना पर मन्थन किया गया। इसी मन्थन में से यह बात सामने आई कि यह योजना इतने बड़े और व्यापक स्तर की है कि हम संघ के स्तर पर उसको विफल नहीं कर सकते। इसे सेना ही विफल कर सकती है। अतः इसकी सूचना हमें सरदार पटेल को देनी चाहिए। फलतः उस बैठक से ही दो-तीन कार्यकर्ता रात्रि को एक बजे के लगभग सीधे सरदार पटेल की कोठी पर पहुँचे तथा उन्हें जगा कर यह सारी जानकारी दी। पटेल बोले-“अगर यह सच न हुआ तो?” कार्यकर्ताओं ने उत्तर दिया- “आप हमें यहीं बिठा लीजिए तथा अपने गुप्तचर विभाग से जाँच करा लीजिए। अगर यह सच साबित न हुआ तो हमें जेल में डाल दीजिए।” इसके बाद सरदार हरकत में आए।
कल्पना करें कि यदि सरदार पटेल संघ की उक्त सूचना पर विश्वास न करते अथवा वे आकिनलेक की बातों में आ जाते तो भारत सरकार को भाग कर अपनी राजधानी लखनऊ, कलकत्ता या मुम्बई में बनानी पड़ती और परिणाम स्वरूप आज पाकिस्तान की सीमा दिल्ली तक तो जरूर ही होती।
एक बहुत ब्रिलियंट लड़का था। हर साल कक्षा में प्रथम आया करता था। साइंस में हमेशा उसने 100% स्कोर किया। अब ऐसे विद्यार्थी आम तौर पर इंजिनियर बनने चले जाते हैं, सो उसका भी चयन आईआईटी ( IIT )चेन्नई में हो गया। वहाँ से बी टेक ( B Tech ) किया और आगे की पढ़ाई करने अमेरिका चला गया और यूनिवर्सिटी ऑफ़ केलिफ़ोर्निया से एमबीए ( MBA ) किया।
अब इतना पढने के बाद तो वहाँ अच्छी नौकरी मिल ही जाती है। उसने वहाँ भी हमेशा टॉप ही किया। वहीं नौकरी करने लगा। वहीं उसने 5 बेडरूम का घर खरीद लिया। चेन्नई की ही एक बेहद खूबसूरत लड़की से उसकी शादी हुई।
एक आदमी और क्या चाहता है अपने जीवन में? पढ़ लिख के इंजिनियर बन गया, अमेरिका में सेटल हो गया, मोटी तनख्वाह की नौकरी, बीवी बच्चे, सुख ही सुख।
लेकिन दुर्भाग्य वश आज से चार साल पहले उसने वहीं अमेरिका में, सपरिवार आत्महत्या कर ली! अपनी पत्नी और बच्चों को गोली मार कर खुद को भी गोली मार ली!!
आखिर ऐसा क्या हुआ, गड़बड़ कहाँ हुई। ये कदम उठाने से पहले उसने बाकायदा अपनी पत्नी से चर्चा की, फिर एक लम्बा सुसाइड नोट लिखा और उसमें बाकायदा अपने इस कदम को जस्टिफाई किया और यहाँ तक लिखा कि यही सबसे श्रेष्ठ रास्ता था इन परिस्थितयों में।
इस केस को और उस सुसाइड नोट को कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ क्लिनिकल साइकोलाॅजी ने "क्या गलत हुआ?" जानने के लिए अध्ययन किया।
उस व्यक्ति के मित्रों से पूछताछ की गई। छानबीन से पता चला कि अमेरिका की आर्थिक मंदी में उसकी नौकरी चली गयी। बहुत दिन खाली बैठे रहे। नौकरियाँ ढूँढते रहे। फिर अपनी तनख्वाह कम करते गए और फिर भी जब नौकरी न मिली, तो मकान की किश्त नहीं भर पाये, और सड़क पर आने की नौबत आ गयी। बताते है कि कुछ दिन किसी पेट्रोल पम्प पर तेल भरा। साल भर ये सब बर्दाश्त किया और फिर पति पत्नी ने अंत में ख़ुदकुशी कर ली।
इस अध्ययन का विशेषज्ञों द्वारा निष्कर्ष निकाला गया कि उस आदमी को सफलता के लिए तैयार किया गया था। उसे असफलता के लिए कभी भी तैयार नहीं किया गया था। उसे जीवन में ये नहीं सिखाया गया कि असफलता का सामना कैसे किया जाए।
अब उसके जीवन पर शुरू से नज़र डालते हैं। पढने में बहुत तेज़ था, हमेशा प्रथम ही आया। एक होशियार बच्चा अगर कोई गलती कर देता है तो माँ-बाप सोचते हैं कि कोई बहुत बड़ा गुनाह हो गया है। इसके लिए वे बच्चे सब कुछ करते हैं, हमेशा प्रथम आने के लिए। और हर बार की सफलता उन्हें और अधिक अपेक्षाओं की डोर से बांधती है। जाहिर है वे अपना पूरा समय अगली सफलता की तैयारी में लगा देते है, सो खेल कूद, घूमना फिरना, दोस्तो से लड़ाई, मस्ती इन सबके लिए समय ही नहीं मिला।
12th पास की तो इंजीनियरिंग कॉलेज का बोझ लद गया उस पर। वहाँ से निकला तो एमबीए ( MBA ) और अभी पढ़ ही रहे थे कि मोटी तनख्वाह की नौकरी। अब मोटी तनख्वाह, मतलब बड़ी जिम्मेवारी, यानी बड़े-बड़े लक्ष्य!
जीवन वास्तव में हर पड़ाव पर नई चुनौतियाँ लेकर आता है। हमारी स्कूल और कॉलेज की डिग्रियाँ और मार्कशीट सारी चुनौतियों को स्वीकार करने की क्षमता नहीं रखती। वहाँ हमें हमारी क्लास में कितने नंबर मिले, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
जीवन की परीक्षाओं के प्रश्न किताबों में नहीं मिलते हैं, (out of syllabus) तो फिर हल वहाँ कैसे मिलेगा।
आज की शिक्षा प्रणाली द्वारा बच्चों के दिमाग को तो पोषित कर रहे हैं, पर ह्रदय को पोषित करने के लिए क्या कर रहे हैं? क्योंकि जीवन रूपी नैया को पार करने के लिए, जो धैर्य, दयालुता, करुणा, सहन शक्ति, प्रेम और साहस की जरूरत होती है, वे बीज तो ह्रदय में है। अगर ह्रदय को पोषित नहीं किया तो फिर हमारी जीवन रूपी ये नैया, जीवन की छोटी मोटी लहर मे डगमगाने लगेगी।
हर परिस्थिति को खुशी-खुशी धैर्य के साथ स्वीकार करने की क्षमता और उस परिस्थिति से उबरने का ज्ञान, इन सब का विवेक जगाना होगा।
"जब हृदय संतुष्ट हो तो मन अंतर्दृष्टि, स्पष्टता और विवेक प्राप्त करता ,
दुनिया के सबसे प्रचीन धर्मों में से एक सनातन धर्म की विशालता से सभी अवगत हैं! बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों को उनके गुरूओं द्वारा स्थापित किया गया और फिर अनुयायियों ने उसका प्रचार किया पर हिंदू धर्म के तथ्य इससे काफी अलग हैं. सनातन धर्म प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है.
इस धर्म में व्यक्ति के जीवन के लिए जो भी नियम बनाएं गए हैं. उनका वैज्ञानिक आधार भी है. जैसे जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया है. इन आश्रमों में रहते हुए मनुष्य को 16 प्रकार के संस्कारों का पालन करना अनिवार्य माना गया है.जीवन के इन नियमों को बनाने का श्रेय महर्षि वेदव्यास को जाता है. मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार बनाएं गए हैं, जिनके पालन से उसके पुण्य का खाता भरता है. तो चलिए जानते हैं कि सबसे पुरातन सनातन धर्म के इन 16 संस्कार और उनके महत्व को—
कुछ ऐसी है संस्कार की परिभाषा
महर्षि वेदव्यास ने संस्कार शब्द को परिभाषित करते हुए बताया है कि संस्कार अपने भीतर कई गुणों को समाए हुए है.ठीक करना, दुरुस्ती, सुधार, दोष, त्रुटि का निकाला जाना, मन में सकारात्मक विचारों को पैदा करना, खुद को पवित्र करना, संवर्धन, तहज़ीब, शिष्टता, रिवाज़, धार्मिक कृत्य आदि सभी संस्कार का ही हिस्सा हैं. संस्कार किसी भी धर्म की वह चेतना है, जो उस धर्म के मानने वालों को जीने का सलीका सिखाती है. संस्कार हमारे धार्मिक और सामाजिक जीवन की पहचान होते हैं. हिंदुओ के लिए 16 संस्कारों का प्रावधान रखा गया है. माना जाता है कि इनका पालन करने से गुणों में वृद्धि होती है.
हालांकि, अलग अलग शास्त्रों में संस्कारों की संख्या भी अलग है.जैसे महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कारों का जिक्र किया है. जबकि, कुछ जगहों पर मनुष्य जीवन के 48 तरीके बताए गए हैं. लेकिन इन सबमें सबसे सटीक विवरण महर्षि वेद व्यास ने किया है. यही कारण है कि हिंदुओं में उनके बताए गए 16 संस्कारों का प्रचलन है.मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिए पहले शोध किए और फिर परिणाम देखने के बाद नियमों का संकलन किया है. हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों को सामाजिक शास्त्र और मनोविज्ञान से जुड़े चिकित्सक और वैज्ञानिकों ने भी मान्यता दी है.
योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त करने के लिए मनुष्य जीवन का यह पहला संस्कार है. इसे गर्भाधान संस्कार कहा गया है. गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है. उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान के लिए अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए. कहा गया है, जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते. यानि जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है.इसके तहत बच्चे के जन्म के पहले स्त्री और पुरुष को अपनी सेहत और मानसिक अवस्था का अनुमाप करना चाहिए. नियमों, तिथि, नक्षत्र आदि के अनुसार ही गर्भधारण करना चाहिए. ताकि शिशु निरोग और गुणवान हो सके.
दूसरा संस्कार: पुंसवन
इसके तहत इस बात का ध्यान रखा जाता है कि गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाए. जैसे अच्छा खान-पान, सकारात्मक वातावरण, परिवार का आर्शीवाद आदि बेहद अहम होते हैं. शिशु के गर्भ में आने के बाद यदि उसके परिवार का माहौल सकारात्मक नहीं है तो इससे आने वाले नए जीवन के मानसिक विकास पर फर्क आता है.इस लिए पुंसवन संस्कार के तहत नौ माह के भीतर परिवारों में आध्यात्मिक पूजा पाठ, प्रवचन, कर्म कांड आदि करवाया जाना अनिवार्य है. कहा जाता है कि गर्भवति स्त्री को रोजाना गीता और रामायण जैसे पवित्र ग्रंथों का ध्ययन रोजाना करना चाहिए. इससे शिशु का विचार तंत्र विकासित होता है.
तीसरा संस्कार: सीमन्तोन्नयन
सीमन्तोन्नयन संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है. इसका शाब्दिक अर्थ है- "सीमन्त" अर्थात् 'केश और उन्नयन' अर्थात् 'ऊपर उठाना'. इस संस्कार के तहत पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम 'सीमंतोन्नयन' पड़ गया. इस संस्कार को गर्भ के छठे या आठवें महीने में किया जाता है. यह एक प्रकार से गर्भ की शुद्धि प्रक्रिया है. इस दौरान बच्चे का दिमाग और दिल विकसित हो रहा होता है. यदि मां ऐसे वातावरण में रहती है जहां अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म किए जाते हैं, तो निश्चित ही शिशु के मतिष्क और रूप पर उसका सकारात्मक असर होता है. कहा जाता है कि भक्त प्रह्लाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे. इसे प्रह्लाद ने गर्भ में ही सुनकर धारण कर लिया था. इसी तरह यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया
चौथा संस्कार: जातकर्म
जन्म के बाद नवजात शिशु के नालच्छेदन (यानि नाल काटने) से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है. इसके लिए दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण तैयार होता है. जिसे घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है. इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है.
इस पूरी प्रक्रिया में करीब 30 मिनिट का समय लगता है.
वैज्ञानिक भी मानते हैं बच्चे के जन्म के 30 मिनिट के भीतर उसे मां का दूध पिलाना चाहिए. जबकि, इस नियम को सदियों पहले ही सनातन धर्म में लिखा जा चुका है.
पांचवा संस्कार: नामकरण
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य को जिस तरह के नाम से पुकारा जाता है. उसे उसी प्रकार की छोटी सी अनुभूति होती रहती है. यानि उसके स्वभाव पर नाम का असर होता है. यही कारण है कि जब जीवन में परेशानियां आती हैं तो लोग अपना नाम बदलते हैं.ताकि, नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सके. इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मुनीषियों ने नामकरण संस्कार का विधान किया है. जिसमें ध्यान रखा जाता है कि शिशु का गुणवाचक नाम रखे जाएँ. नक्षत्र या राशियों के अनुसार नाम रखने से लाभ यह है कि इससे जन्मकुंडली बनाने में आसानी रहती है. आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है. उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है.
छठा संस्कार: निष्क्रमण
निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना. शिशु का नाम रख लिए जाने के बाद भी उसे कुछ दिनों के लिए मां के पास ही रखा जाता है. निष्क्रमण् संस्कार के तहत पहली बार नवजात शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है. विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि यदि सुबह की ठंडी धूप और शाम को चंद्रमा की शीतल छाया नवजात पर पडती है तो वह पीलिया, टाइफाइड जैसे गंभीर रोगों से सुरक्षित रहता है.जबकि, इसके पहली मुनियों का तर्क है शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना तैयार करना. जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है. तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है. उसे चौथे माह में बाहरी वातावरण में लाया जाता है और फिर धीरे-धीरे वह उसका आदि हो जाता है.
सातवा संस्कार: अन्नप्राशन
इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है. शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि पाता है. जन्म से छठे महीने में उसका अन्नप्राशन संस्कार होता है. जिसमें शिशु को चांदी की कटोरी या थाली में रखा भोजन परोसा जाता है. इसमें खास तौर पर उसे खीर खिलाई जाती है.चांदी की कटोरी में जब गर्म दूध की खीर डाली जाती है, तो उसमें चांदी के पोषक तत्व शामिल हो जाते हैं. जो शरीर को मजबूत बनाने के लिए जरूरी हैं.
आठवां संस्कार: मुंडन/चूड़ाकर्म
हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है.मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है. नौ माह गर्भ में रहने के दौरान उसके बाल दूषित हो जाते हैं. चूंकि पहले उसे सिर की त्वचा काफी नर्म होती है इसलिए बालों को नहीं हटाया जाता. जैसे ही शिशु एक साल या उससे अधिक की आयु में पहुंचता है उसकी त्वचा परिपक्व हो जाती है. मुंडन संस्कार से कई दोषों की समाप्ति होती है. यह संस्कार पूरे मंत्रोउच्चार के साथ होता है. जिसमें मुहूर्त और नक्षत्र दशा का विशेष महत्व है.
नौवां संस्कार: कर्ण-छेदन
कान छेदना केवल बेटियों के लिए ही नहीं बल्कि बेटों के लिए भी अनिवार्य बताया गया है.वैज्ञानिक भाषा में इसे एक्यूपंक्चर कहा जाता है. जिसके अनुसार एक्यूपंक्चर से व्यक्ति का दिमाग शांत होता है और उसके दिल की गति सामान्य रहती है. जबकि धार्मिक तथ्य के अनुसार कर्णक्षेदन से व्याधियां ( बीमारी) दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है. योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर होता है.
दसवां संस्कार: विद्यारंभ
प्रचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था. आज भी बसंत पंचमी के दिन बच्चे से पहली बार अक्षर लिखवाया जाता है.भ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार शुरू होता है और इसके बाद बच्चा अपनी पढाई शुरू करता है.
ग्यारहवां संस्कार: यज्ञोपवीत/उपनयन
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) उप यानी पास और नयन यानी ले जाना, गुरू के पास ले जाने का अर्थ है-उपनयन संस्कार. इसमें बालक को जनेऊ पहना जाता है. सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है. हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है.
बारहवां संस्कार: वेदारम्भ
इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है. हालांकि, आज के परिदृश्य में यह लगभग खत्म हो गया है पर कुछ परिवारों ने इस परंपरा की जीवित रखा हुआ है. बालक को स्कृल में वेदों की जानकारी नहीं हो पाती है, तो यह परिवार का दायित्व है कि वह उसे अपने धर्म, संस्कृति, वेदों की जानकारी दे.
प्रचीन काल में वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे. साथ ही उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे.
तेरहवां संस्कार: केशान्त
गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था.
हालांकि, अब जबकि गुरूकुल नहीं है तो इस संस्कार की उपयोगिता खत्म होती जा रही है. यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है. इसमें पहली बार बाल अपनी दाढी बनाता है और स्नान करके पवित्र होता है.
चौहदवां संस्कार: समावर्तन
इसका आशय है ब्रहमचारी मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार है. केशान्त संस्कार के बाद जब स्नान करवाया जाता है तो वह समावर्तन संस्कार के तहत आता है. यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था. इसके साथ ही बालक को विवाह संस्कार में जाने की अनुमति मिल जाती है.
पंद्रहवां संस्कार: विवाह
यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के बाद बालक को विवाह कर गृहस्थ जीवन की शुरूआत करने का अधिकार मिलता है. वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती है. इसके बाद ही उसे परिवार जैसी जिम्मेदारी का हिस्सा बनाया जाता है. हिंदू धर्म में लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करना अनिवार्य बताया गया है. हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच.
सोलहवां संस्कार: दाह संस्कार
किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने प्रथा रही है.इस प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है. हिन्दूधर्म के अनुसार पिता और माता को मुखाग्नि देने का अधिकार केवल पुत्र का है. हालांकि अब सामाजिक परिवर्तन आ रहा है और बेटियां भी अंतिम संस्कार का निर्वहन कर रही हैं.
अंतिम संस्कार के तहत 13 दिनों तक अलग-अलग कर्म करना अनिवार्य है.
इन 16 संस्कारों का पालन करने के बाद ही धरती पर मनुष्य के जीवन को पूर्ण माना गया है. हर संस्कार को निभाने के लिए निश्चित आयुसीमा तय की गई है. इस प्रकार सनातन धर्म में व्यक्ति के पूर्ण जीवन काल को 16 संस्कारों से बांध दिया गया है.
हमारे संस्कार ही हमारे जीवन की चेतना है और शक्ति रहे हैं और रहेंगे.