!! अंतर्मन !!
(अंतर्मन)
बनि दिया के ज्योति,
तिमिर के आउ भगाबी।
पथ के करि स्वच्छ झार सँ,
जौं अशोक के गाछ लगाबी।।
रंग-मंच अछि सजी चुकल,
करु भूमिका तय पर्दा उठाबि।
साक्ष्य अछि दर्शक मूक हेताह,
मुदा,किछुओ त संज्ञान लेता।।
नकारत्मक सोच स भरल छि त,
कहु कोना सुख चैन भेटत।
सगर घरा ज सुरा भरल हो,
अमृत कोना सहेज सकत।।
स्वयं के गाथा,स्वयं ही अर्पण
परहित के ने जानी।
सुखी जीवन के सार वैह थिक,
रहलहुँ हरपल बनि अज्ञानी।।
ज्ञान-विज्ञान के युग मे देखु,
केहन ओझरायल नेना।
अपन चैन के त्यागी सदतिखन,
रुपिया अर्जये सुखलय।।
कविता झा
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