दुनिया के सबसे प्रचीन धर्मों में से एक सनातन धर्म की विशालता से सभी अवगत हैं! बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों को उनके गुरूओं द्वारा स्थापित किया गया और फिर अनुयायियों ने उसका प्रचार किया पर हिंदू धर्म के तथ्य इससे काफी अलग हैं. सनातन धर्म प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है.

    इस धर्म में व्यक्ति के जीवन के लिए जो भी नियम बनाएं गए हैं. उनका वैज्ञानिक आधार भी है. जैसे जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया है. इन आश्रमों में रहते हुए मनुष्य को 16 प्रकार के संस्कारों का पालन करना अनिवार्य माना गया है.जीवन के इन नियमों को बनाने का श्रेय महर्षि वेदव्यास को जाता है. मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार बनाएं गए हैं, जिनके पालन से उसके पुण्य का खाता भरता है.   तो चलिए जानते हैं कि सबसे पुरातन सनातन धर्म के इन 16 संस्कार और उनके महत्व को—

कुछ ऐसी है संस्कार की परिभाषा

   महर्षि वेदव्यास ने संस्कार शब्द को परिभाषित करते हुए बताया है कि संस्कार अपने भीतर कई गुणों को समाए हुए है.ठीक करना, दुरुस्ती, सुधार, दोष, त्रुटि का निकाला जाना, मन में सकारात्मक विचारों को पैदा करना, खुद को पवित्र करना, संवर्धन, तहज़ीब, शिष्टता, रिवाज़, धार्मिक कृत्य आदि सभी संस्कार का ही हिस्सा हैं. संस्कार किसी भी धर्म की वह चेतना है, जो उस धर्म के मानने वालों को जीने का सलीका सिखाती है. संस्कार हमारे धार्मिक और सामाजिक जीवन की पहचान होते हैं. हिंदुओ के लिए 16 संस्कारों का प्रावधान रखा गया है. माना जाता है कि इनका पालन करने से गुणों में वृद्धि होती है.

    हालांकि, अलग अलग शास्त्रों में संस्कारों की संख्या भी अलग है.जैसे महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कारों का जिक्र किया है. जबकि, कुछ जगहों पर मनुष्य जीवन के 48 तरीके बताए गए हैं. लेकिन इन सबमें सबसे सटीक विवरण महर्षि वेद व्यास ने किया है. यही कारण है कि हिंदुओं में उनके बताए गए 16 संस्कारों का प्रचलन है.मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिए पहले शोध किए और फिर परिणाम देखने के बाद नियमों का संकलन किया है. हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों को सामाजिक शास्त्र और मनोविज्ञान से जुड़े चिकित्सक और वैज्ञानिकों ने भी मान्यता दी है.

https://assets.roar.media/assets/e4gkCdinp0ATi7Tr_Pa.jpgपहला संस्कार: गर्भाधान

    योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त करने के लिए मनुष्य जीवन का यह पहला संस्कार है. इसे गर्भाधान संस्कार कहा गया है. गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम क‌र्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है. उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान के लिए अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए. कहा गया है, जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते. यानि जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है.इसके तहत बच्चे के जन्म के पहले स्त्री और पुरुष को अपनी सेहत और मानसिक अवस्था का अनुमाप करना चाहिए. नियमों, तिथि, नक्षत्र आदि के अनुसार ही गर्भधारण करना चाहिए. ताकि शिशु निरोग और गुणवान हो सके.

दूसरा संस्कार: पुंसवन

    इसके तहत इस बात का ध्यान रखा जाता है कि गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाए. जैसे अच्छा खान-पान, सकारात्मक वातावरण, परिवार का आर्शीवाद आदि बेहद अहम होते हैं. शिशु के गर्भ में आने के बाद यदि उसके परिवार का माहौल सकारात्मक नहीं है तो इससे आने वाले नए जीवन के मानसिक विकास पर फर्क आता है.इस लिए पुंसवन संस्कार के तहत नौ माह के भीतर परिवारों में आध्यात्मिक पूजा पाठ, प्रवचन, कर्म कांड आदि करवाया जाना अनिवार्य है. कहा जाता है कि गर्भवति स्त्री को रोजाना गीता और रामायण जैसे पवित्र ग्रंथों का ध्ययन रोजाना करना चाहिए. इससे शिशु का विचार तंत्र विकासित होता है.     

 तीसरा संस्कार: सीमन्तोन्नयन   

  सीमन्तोन्नयन संस्कार  पुंसवन का ही विस्तार है. इसका शाब्दिक अर्थ है- "सीमन्त" अर्थात् 'केश और उन्नयन' अर्थात् 'ऊपर उठाना'. इस संस्कार के तहत पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम 'सीमंतोन्नयन' पड़ गया. इस संस्कार को  गर्भ के छठे या आठवें महीने में किया जाता है. यह एक प्रकार से गर्भ की शुद्धि प्रक्रिया है. इस दौरान बच्चे का दिमाग और दिल विकसित हो रहा होता है. यदि मां ऐसे वातावरण में रहती है जहां अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म किए जाते हैं, तो निश्चित ही शिशु के मतिष्क और रूप पर उसका सकारात्मक असर होता है. कहा जाता है कि भक्त प्रह्लाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे. इसे प्रह्लाद ने गर्भ में ही सुनकर धारण कर लिया था. इसी तरह यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया     

 चौथा संस्कार: जातकर्म

जन्म के बाद नवजात शिशु के नालच्छेदन (यानि नाल काटने) से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है. इसके लिए दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण तैयार होता है. जिसे घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है. इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है.

इस पूरी प्रक्रिया में करीब 30 मिनिट का समय लगता है.

वैज्ञानिक भी मानते हैं बच्चे के जन्म के 30 ​मिनिट के भीतर उसे मां का दूध पिलाना चाहिए. जबकि, इस नियम को सदियों पहले ही सनातन धर्म में लिखा जा चुका है.

पांचवा संस्कार: नामकरण

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य को जिस तरह के नाम से पुकारा जाता है. उसे उसी प्रकार की छोटी सी अनुभूति होती रहती है. यानि उसके स्वभाव पर नाम का असर होता है. यही कारण है कि जब जीवन में परेशानियां आती हैं तो लोग अपना नाम बदलते हैं.ताकि, नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सके. इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मुनीषियों ने नामकरण संस्कार का विधान किया है. जिसमें ध्यान रखा जाता है कि शिशु का गुणवाचक नाम रखे जाएँ. नक्षत्र या राशियों के अनुसार नाम रखने से लाभ यह है कि इससे जन्मकुंडली बनाने में आसानी रहती है. आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है. उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है. 

छठा संस्कार: निष्क्रमण  

    निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना. शिशु का नाम रख लिए जाने के बाद भी उसे कुछ दिनों के लिए मां के पास ही रखा जाता है. निष्क्रमण् संस्कार के तहत पहली बार नवजात शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है.  विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि यदि सुबह की ठंडी धूप और शाम को चंद्रमा की शीतल छाया नवजात पर पडती है तो वह पीलिया, टाइफाइड जैसे गंभीर रोगों से सुरक्षित रहता है.जबकि, इसके पहली मुनियों का तर्क है शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना तैयार करना.  जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है. तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है. उसे चौथे माह में बाहरी वातावरण में लाया जाता है और फिर धीरे-धीरे वह उसका आदि हो जाता है.

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सातवा संस्कार: अन्नप्राशन

इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है. शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि पाता है. जन्म से छठे महीने में उसका अन्नप्राशन संस्कार होता है. जिसमें शिशु को चांदी की कटोरी या थाली में रखा भोजन परोसा जाता है. इसमें खास तौर पर उसे खीर खिलाई जाती है.चांदी की कटोरी में जब गर्म दूध की खीर डाली जाती है, तो उसमें चांदी के पोषक तत्व शामिल हो जाते हैं. जो शरीर को मजबूत बनाने के लिए जरूरी हैं. 

आठवां संस्कार: मुंडन/चूड़ाकर्म

हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है.मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है. नौ माह गर्भ में रहने के दौरान उसके बाल दूषित हो जाते हैं. चूंकि पहले उसे सिर की त्वचा काफी नर्म होती है इसलिए बालों को नहीं हटाया जाता. जैसे ही शिशु एक साल या उससे अधिक की आयु में पहुंचता है उसकी त्वचा परिपक्व हो जाती है. मुंडन संस्कार से कई दोषों की समाप्ति होती है. यह संस्कार पूरे मंत्रोउच्चार के साथ होता है. जिसमें मुहूर्त और नक्षत्र दशा का विशेष महत्व है.

नौवां संस्कार: कर्ण-छेदन

कान छेदना केवल बेटियों के लिए ही नहीं बल्कि बेटों के लिए भी ​अनिवार्य बताया गया है.वैज्ञानिक भाषा में इसे एक्यूपंक्चर कहा जाता है. जिसके अनुसार एक्यूपंक्चर से व्यक्ति का दिमाग शांत होता है और उसके दिल की गति सामान्य रहती है. जबकि धार्मिक तथ्य के अनुसार कर्णक्षेदन से व्याधियां ( बीमारी) दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है. योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर होता है.

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दसवां संस्कार: विद्यारंभ

प्रचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था. आज भी बसंत पंचमी के दिन बच्चे से पहली बार अक्षर लिखवाया जाता है.भ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार शुरू होता है और इसके बाद बच्चा अपनी पढाई शुरू करता है.

ग्यारहवां संस्कार: यज्ञोपवीत/उपनयन

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) उप यानी पास और नयन यानी ले जाना, गुरू के पास ले जाने का अर्थ है-उपनयन संस्कार. इसमें बालक को जनेऊ पहना जाता है. सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है. हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है.

बारहवां संस्कार: वेदारम्भ

इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है. हालांकि, आज के परिदृश्य में यह लगभग खत्म हो गया है पर कुछ परिवारों ने इस परंपरा की जीवित रखा हुआ है. बालक को स्कृल में वेदों की जानकारी नहीं हो पाती है, तो यह परिवार का दायित्व है कि वह उसे अपने धर्म, संस्कृति, वेदों की जानकारी दे.

प्रचीन काल में वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे. साथ ही उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे.

तेरहवां संस्कार: केशान्त

गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था.

हालांकि, अब जबकि गुरूकुल नहीं है तो इस संस्कार की उपयोगिता खत्म होती जा रही है. यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है. इसमें पहली बार बाल अपनी दाढी बनाता है और स्नान करके पवित्र होता है. 

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चौहदवां संस्कार: समावर्तन

इसका आशय है ब्रहमचारी मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार है. केशान्त संस्कार के बाद जब स्नान करवाया जाता है तो वह समावर्तन संस्कार के तहत आता है. यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था. इसके साथ ही बालक को विवाह संस्कार में जाने की अनुमति मिल जाती है.

पंद्रहवां संस्कार: विवाह

यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के बाद बालक को विवाह कर गृहस्थ जीवन की शुरूआत करने का अधिकार मिलता है. वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती है. इसके बाद ही उसे परिवार जैसी जिम्मेदारी का हिस्सा बनाया जाता है. हिंदू धर्म में लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करना अनिवार्य बताया गया है. हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच.

सोलहवां संस्कार: दाह संस्कार

किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने प्रथा रही है.इस प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है. हिन्दूधर्म के अनुसार पिता और माता को मुखाग्नि देने का अधिकार केवल पुत्र का है. हालांकि अब सामाजिक परिवर्तन आ रहा है और बेटियां भी अंतिम संस्कार का निर्वहन कर रही हैं. 

अंतिम संस्कार के तहत 13 दिनों तक अलग-अलग कर्म करना अनिवार्य है.

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     इन 16 संस्कारों का पालन करने के बाद ही धरती पर मनुष्य के जीवन को पूर्ण माना गया है. हर संस्कार को निभाने के लिए निश्चित आयुसीमा तय की गई है. इस प्रकार सनातन धर्म में व्यक्ति के पूर्ण जीवन काल को 16 संस्कारों से बांध दिया गया है.

हमारे संस्कार ही हमारे जीवन की चेतना है और शक्ति रहे हैं और रहेंगे.