dahej mukt mithila

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शनिवार, 26 नवंबर 2022

12 ज्योतिर्लिंग कहां–कहां है

     


   पुराणों और धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक देशभर के 12 स्थानों पर जो शिवलिंग मौजूद हैं उनमें ज्योति के रूप में स्वयं भगवान शिव विराजमान हैं इसलिए इन्हें ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है.

 1. सोमनाथ ज्योतिर्लिंग, गुजरात 

गुजरात के सौराष्ट्र में अरब सागर के तट पर स्थित है देश का पहला ज्योतिर्लिंग जिसे सोमनाथ के नाम से जाना जाता है. शिव पुराण के अनुसार जब चंद्रमा को प्रजापति दक्ष ने क्षय रोग का श्राप दिया था तब इसी स्थान पर शिव जी की पूजा और तप करके चंद्रमा ने श्राप से मुक्ति पाई थी. ऐसी मान्यता है कि स्वयं चंद्र देव ने इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना की थी.

 2. मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग, आंध्र प्रदेश 

आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के किनारे श्रीशैल पर्वत पर स्थित है मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग. इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं

 3. महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, मध्य प्रदेश 

मध्य प्रदेश के उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित है महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग. ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है जहां रोजाना होने वाली भस्म आरती विश्व भर में प्रसिद्ध है.

 4. ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग, मध्य प्रदेश 

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्‍य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित है और नर्मदा नदी के किनारे पर्वत पर स्थित है. मान्‍यता है कि तीर्थ यात्री सभी तीर्थों का जल लाकर ओंकारेश्वर में अर्पित करते हैं तभी उनके सारे तीर्थ पूरे माने जाते हैं.

 5. केदारनाथ ज्योतिर्लिंग, उत्तराखंड 

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड में अलखनंदा और मंदाकिनी नदियों के तट पर केदार नाम की चोटी पर स्थित है. यहां से पूर्वी दिशा में श्री बद्री विशाल का बद्रीनाथधाम मंदिर है.  मान्‍यता है कि भगवान केदारनाथ के दर्शन किए बिना बद्रीनाथ की यात्रा अधूरी और निष्‍फल है.

 6. भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र 

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र में पुणे से करीब 100 किलोमीटर दूर डाकिनी में स्थित है. यहां स्थित शिवलिंग काफी मोटा है, इसलिए इसे मोटेश्वर महादेव भी कहा जाता है.

 7. विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग, उत्तर प्रदेश 

उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर जिसे धर्म नगरी काशी के नाम से जाना जाता है वहां पर गंगा नदी के तट पर स्थित है बाबा विश्‍वनाथ का मंदिर जिसे विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है. ऐसी मान्‍यता है कि कैलाश छोड़कर भगवान शिव ने यहीं अपना स्थाई निवास बनाया था.

 8. त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र 

त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्‍ट्र के नासिक से 30 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है. गोदावरी नदी के किनारे स्थित यह मंदिर काले पत्थरों से बना है. शिवपुराण में वर्णन है कि गौतम ऋषि और गोदावरी की प्रार्थना पर भगवान शिव ने इस स्थान पर निवास करने निश्चय किया और त्र्यंबकेश्वर नाम से विख्यात हुए.

 9. वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, झारखंड 

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग झारखंड के देवघर में स्थित है. यहां के मंदिर को वैद्यनाथधाम के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि एक बार रावण ने तप के बल से शिव को लंका ले जाने की कोशिश की, लेकिन रास्ते में व्यवधान आ जाने से शर्त के अनुसार शिव जी यहीं स्थापित हो गए.

 10. नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, गुजरात 

नागेश्‍वर मंदिर गुजरात में बड़ौदा क्षेत्र में गोमती द्वारका के करीब स्थित है. धार्मिक पुराणों में भगवान शिव को नागों का देवता बताया गया है और नागेश्वर का अर्थ होता है नागों का ईश्वर

कहते हैं कि भगवान शिव की इच्छा अनुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नामकरण किया गया है.

 11. रामेश्वर ज्योतिर्लिंग, तमिलनाडु 

भगवान शिव का 11वां ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु के रामनाथम नामक स्थान में हैं. ऐसी मान्‍यता है कि रावण की लंका पर चढ़ाई से पहले भगवान राम ने जिस शिवलिंग की स्थापना की थी, वही रामेश्वर के नाम से विश्व विख्यात हुआ.

 12. घृष्‍णेश्‍वर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र 

घृष्‍णेश्‍वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के संभाजीनगर के समीप दौलताबाद के पास स्थित है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इस ज्योतिर्लिंग को घुश्मेश्वर के नाम से भी जाना जाता है.

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

स्वस्तिक का महत्व

      


     किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहाँ ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना। अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’। विवाह, मुंडन, संतान के जन्म और पूजा पाठ के विशेष अवसरों पर स्वस्तिक का चिन्ह बनता है।                                                                 यही कारण है कि किसी भी शुभ कार्य के दौरान स्वास्तिक को पूजना अति आवश्यक माना गया है।                 लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है। मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।                                       

         इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा,  विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोड़ने के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है। मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।  
      स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।हिन्दू धर्म के अलावा स्वास्तिक का और भी कई धर्मों में महत्व है। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।   
  
          बैसे तो हिन्दू धर्म में ही स्वास्तिक के प्रयोग को सबसे उच्च माना गया है लेकिन हिन्दू धर्म से भी ऊपर यदि स्वास्तिक ने कहीं मान्यता हासिल की है तो वह है जैन धर्म। हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।   
                                               
        केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है? भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है। लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं।  
                             
      वैज्ञानिकों ने तूफान, बरसात, जमीन के अंदर पानी, तेल के कुएँ आदि की जानकारी के लिए कई यंत्रों का निर्माण किया। इन यंत्रों से प्राप्त जानकारियाँ पूर्णतः सत्य एवं पूर्णतः असत्य नहीं होतीं। जर्मन और फ्रांस ने यंत्रों का आविष्कार किया है, जो हमें ऊर्जाओं की जानकारी देता है। उस यंत्र का नाम बोविस है। इस यंत्र से स्वस्तिक की ऊर्जाओं का अध्ययन किया जा रहा है। वैज्ञानिकों ने उसकी जानकारी विश्व को देने का प्रयास किया है। विधिवत पूर्ण आकार सहित बनाए गए एक स्वस्तिक में करीब 1 लाख बोविस ऊर्जाएँ रहती हैं। जानकारियाँ बड़ी अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है।                                    
       स्वस्तिक का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। इसे विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यताओं में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। मध्य एशिया देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता है।                                                                                   
        शरीर की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस दिन स्वस्तिक बनाएँ) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक 90 डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर रखते हुए बनाएँ। केसर से, कुमकुम से, सिन्दूर और तेल के मिश्रण से अनामिका अंगुली से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत बनाने पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन महसूस किया जा सकता है।भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

खजूर खाओ, सेहत बनाओ



   खजूर मधुर, शीतल, पौष्टिक व सेवन करने के बाद तुरंत शक्ति-स्फूर्ति देनेवाला है । यह रक्त, मांस व वीर्य की वृद्धि करता है । हृदय व मस्तिष्क को शक्ति देता है । वात, पित्त व कफ इन तीनों दोषों का शामक है । यह मल व मूत्र को साफ लाता है । खजूर में कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन्स, कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस, लौह आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं । ‘अमेरिकन कैंसर सोसायटी’ के अनुसार शरीर को एक दिन में 20-35 ग्राम डाएटरी फाइबर (खाद्य पदार्थों में स्थित रेशा) की जरूरत होती है, जो खजूर खाने से पूरी हो जाती है ।

         खजूर रातभर पानी में भिगोकर सुबह लेना लाभदायक है । कमजोर हृदयवालों के लिए यह विशेष उपयोगी है । खजूर यकृत (लीवर) के रोगों में लाभकारी है । रक्ताल्पता में इसका नियमित सेवन लाभकारी है । नींबू के रस में खजूर की चटनी बनाकर खाने से भोजन की अरुचि मिटती है । खजूर का सेवन बालों को लम्बे, घने और मुलायम बनाता है ।

                               * औषधि-प्रयोग *

        मस्तिष्क व हृदय की कमजोरी : रात को खजूर भिगोकर सुबह दूध या घी के साथ खाने से मस्तिष्क व हृदय की पेशियों को ताकत मिलती है । विशेषतः रक्त की कमी के कारण होनेवाली हृदय की धड़कन व एकाग्रता की कमी में यह प्रयोग लाभदायी है ।

         शुक्राल्पता : खजूर उत्तम वीर्यवर्धक है । गाय के घी अथवा बकरी के दूध के साथ लेने से शुक्राणुओं की वृद्धि होती है । इसके अतिरिक्त अधिक मासिक स्राव, क्षयरोग, खाँसी, भ्रम (चक्कर), कमर व हाथ-पैरों का दर्द एवं सुन्नता तथा थायरॉइड संबंधी रोगों में भी यह लाभदायी है ।

        कब्जनाशक : खजूर में रेचक गुण भरपूर है । 8-10 खजूर 200 ग्राम पानी में भिगो दें, सुबह मसलकर इनका शरबत बना लें । फिर इसमें 300 ग्राम पानी और डालकर गुनगुना करके खाली पेट चाय की तरह पियें । कुछ देर बाद दस्त होगा । इससे आँतों को बल और शरीर को स्फूर्ति भी मिलेगी । उम्र के अनुसार खजूर की मात्रा कम-ज्यादा करें ।

            नशा-निवारक : शराबी प्रायः नशे की झोंक में इतनी शराब पीते हैं कि उसका यकृत नष्ट होकर मृत्यु का कारण बन जाता है । इस स्थिति में ताजे पानी में खजूर को अच्छी तरह मसलते हुए शरबत बनायें । यह शरबत पीने से शराब का विषैला प्रभाव नष्ट होने लगता है ।

    आँतों की पुष्टि : खजूर आँतों के हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है, साथ ही खजूर के विशिष्ट तत्त्व ऐसे जीवाणुओं को जन्म देते हैं जो आँतों को विशेष शक्तिशाली तथा अधिक सक्रिय बनाते हैं ।

        हृदयरोगों में : लगभग 50 ग्राम गुठलीरहित छुहारे (खारक) 250 मि.ली. पानी में रात को भिगो दें । सुबह छुहारों को पीसकर पेस्ट बना के उसी बचे हुए पानी में घोल लें । इसे प्रातः खाली पेट पी जाने से कुछ ही माह में हृदय को पर्याप्त सबलता मिलती है । इसमें 1 ग्राम इलायची चूर्ण मिलाना विशेष लाभदायी है ।

      तन-मन की पुष्टि : दूध में खजूर उबाल के बच्चों को देने से उन्हें शारीरिक-मानसिक पोषण मिलता है व शरीर सुदृढ़ बनता है ।

      शैयामूत्र : जो बच्चे रात्रि में बिस्तर गीला करते हों, उन्हें दो छुहारे रात्रि में भिगोकर सुबह दूध में उबाल के दें ।

       बच्चों के दस्त में : बच्चों के दाँत निकलते समय उन्हें बार-बार हरे दस्त होते हों या पेचिश पड़ती हो तो खजूर के साथ शहद को अच्छी तरह फेंटकर एक-एक चम्मच दिन में 2-3 बार चटाने से लाभ होता है ।*

       सावधानी : आजकल खजूर को वृक्ष से अलग करने के बाद रासायनिक पदार्थों के द्वारा सुखाया जाता है । ये रसायन शरीर के लिए हानिकारक होते हैं । अतः उपयोग करने से पहले खजूर को अच्छी तरह से धो लें । धोकर सुखाने के बाद इन्हें विभिन्न प्रकार से उपयोग किया जा सकता है ।

   मात्रा : 5 से 7 खजूर अच्छी तरह धोकर रात को भिगो के सुबह खायें । बच्चों के लिए 2-4 खजूर पर्याप्त है । दूध या घी में मिलाकर खाना विशेष लाभदायी है ।                                                       ll जय श्री राम ll

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

देवोत्थान एकादशी - तुलसी विवाह



शास्त्रीय मान्यताक अनुसार आषाढ़ शुक्लक देवशयनी एकादशी सँ वर्षाकालक चारि माहक अवधि भगवान विष्णुकेँ योगनिद्राक अवधि होइत छनि। हमर सभक सब मांगलिक कार्य श्रीहरिकेँ साक्षीमे होइत अछि। देवोत्थान कार्तिक शुक्ल एकादशीकेँ देव उठान, देवोत्थान, हरिबोधिनी, प्रबोधिनी एकादशी सेहो कहल जाइत अछि।मिथिलामे देवोत्थान एकादशीक बड़ महत्व अछि। कालिदास सेहो मेघदूतमे एहि दिनक उल्लेख कएने छथि।मेघदूतमे यक्षक शापक अंत होयबाक यैह दिन कहल गेल अछि - शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शार्डग्पाणौ। एहि सँ स्पष्ट अछि जे कालिदासक समयमे सेहो ई देवोत्थान एकादशी एकटा महत्वपूर्ण अवसर छल आ दिन गिनबाक एकटा नियत तिथि छल। श्रीहरिकेँ तुलसी प्राणप्रिय छैन्ह, ताहि दुवारे जागरणक बाद सर्वप्रथम तुलसीक संग हुनकर विवाहक आयोजन कएल जाइत अछि।

श्रीविष्णु व तुलसीक एहि विवाहक पाछू एक पौराणिक कथा अछि। श्रीमद्भागवतक अनुसार प्राचीन कालमे जलंधर नामक एक महाशक्तिशाली असुर छल। ओ श्रीहरिकेँ परमभक्त अपन पतिव्रता पत्नी वृंदाक तपबलक कारण अजेय बनल छल। जलंधरक उपद्रव सँ परेशान सब देवी-देवता प्रार्थना सुनि कऽ भगवान विष्णु सँ रक्षा करयकेँ गुहार लगेलखिन। देवी-देवताक प्रार्थना सुनि कऽ भगवान विष्णु वृंदाकेँ पतिव्रता धर्म भंग करयकेँ निश्चय केलनि। ओ जलंधरक रूप धरि कऽ छल सँ वृंदाकेँ स्पर्श केलखिन। विष्णुक स्पर्श करैत देरी वृंदाक सतीत्व नष्ट भऽ गेलनि। जलंधर देवता सँ पराक्रम सँ युद्ध करि रहल छल मुदा वृंदाक सतीत्व नष्ट होइत देरी ओ मारल गेल। जखन वृंदाकेँ वास्तविकताक पता चललनि तखन क्रोधमे आबि कऽ ओ भगवान विष्णुकेँ पाषाण भऽ जाइकेँ शाप देलखिन और प्राण त्याग करय लगलीह। ई देखि अपन वास्तविक रूपमे आबि कऽ श्रीहरि वृंदाकेँ हुनकर पतिक अन्याय व अत्याचार सँ अवगत करेलखिन। और हुनका कहलकि कई तरहें ओहो परोक्ष रूप सँ अपन पतिकेँ अत्याचारक सहभागी बनल छलीह। 

पूरा गप्प सुनि कऽ वृंदाकेँ अपन भूलक अहसास भेलनि और ओ श्रीहरि सँ क्षमा माँगैत कहलखिन कि आब ओ क्षणभरि जीवित नहिं रहती। एहि पर श्रीहरि हुनका अनन्य भक्तिकेँ वरदान दैत कहलखिन, ' हे वृंदा ' अहाँ हमर प्राणप्रिय छी। ताहि दुवारे अहाँक शाप सेहो हमरा शिरोधार्य अछि। हमर आशीर्वाद सँ अहाँ सृष्टिकेँ सर्वाधिक हितकारी औषधी ' तुलसी ' केँ रूपमे जानल जायब और हमर पाषाण स्वरूप ' शालिग्राम ' सँ अहाँक मंगल परिणय संसारवासीकेँ अह्लादक निमित्त बनत।

देवोत्थान एकादशीक दिन तुलसी और शालिग्रामक विवाहक एहि मांगलिक अवसर पर तुलसी चौराकेँ गोबर सँ नीप कऽ तुलसी पौधाकेँ लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ा कऽ सोलह श्रृंगारक सामान चढ़ाओल जाइत अछि।फेर गणेश पूजनक बाद तुलसी चौराक लऽग कुशियारक भव्य मंडप बना कऽ ओहिमे श्रद्धा सँ शालिग्रामकेँ स्थापित कऽ विधिपूर्वक विवाहक आयोजन होइत अछि। मान्यता अछि कि तुलसी विवाहक ई आयोजन कयला सँ कन्यादानक बराबर फल भेटैत छैक। 

आभा झा

गाजियाबाद

तुलसीक विवाह

 


तुलसी के गाछ जे पूर्व जन्म मे एकटा कन्या छलीह आ जिनक नाम बृंदा छलैन्ह। राक्षस कुल में जन्म लेलाक उपरान्तो भगवान विष्णु केर अनन्य भक्त छलीह।                                                       हुनक विवाह राक्षस कुल के दानव राज जलंधर सँ भेलन्हि। ओ अत्यंत पतिव्रता आ सतत् अपन पति के सेवा में लागल रहैत छलीह। एक बेर देवासुर संग्राम में जखन जलंधर युद्ध मेँ जाए लागल तऽ बृंदा अपन पति सँ कहलखिन्ह जे जा धरि अहाँ युद्धक्षेत्र में रहब ता धरि हम एहि ठाम बैसि कए अहाँक विजय के लेल अनुष्ठान करब। जा धरि सकुशल वापस नहि आबि जायब हम अपन संकल्प नहि छोङब।                        जलंधर युद्धक मैदान मे बिदा भेलाह आ बृंदाक ब्रत एवं संकल्प के प्रभाव सँ जलंधर सभ देवता के परास्त कऽ देलक। सभ देवता भगवान विष्णु केर दरवार मे उपस्थित भेलाह आ जलंधर के रणकौशल के विषय में कहलखिन्ह। भगवान विष्णु कहलखिन्ह जे हम एहि विषय में अहाँ सभक मदद नहिं कऽ सकैत छी कारण जे जलंधर के पत्नी बृंदा हमर परम भक्त छैथि। हम हुनक अहित नहिं कऽ सकैत छी।                                       सभ देवता पुनः भगवान विष्णु केर आराधना करय लगलाह आ भगवान विष्णु विवश भऽ कऽ बृंदा के महल में प्रवेश करैत छैथि जलंधर के रूप में। बृंदा अपन पति के देखि पूजा अनुष्ठान सँ उठि जाइत छैथि आ पति के चरण स्पर्श करैत छथि तावत ओ देखैत छैथि जे जलंधर के काटल सिर वृंदा के आगू में खसैत अछि। वृंदाक पूजा अनुष्ठान केर प्रभाव बन्द भेलाक कारणे जलंधर युद्ध मेँ पराजित होइत अछि आ ओकर सिर धर सँ अलग भऽ जाइत छैक। जखन वृंदा ध्यान सँ अपन पतिक सिर देखैत अछि तऽ हुनका संदेह होमय लगैत छैन्ह जे ई सामने जे ठाढ छैथि ओ के छैथि? विष्णु भगवान अपन रूप मे आबि जाइत छैथि वृंदा भगवान के श्राप दैत छथिन्ह। भगवान विष्णु पाथर के भऽ जाइत छैथि।                                                      चारू दिस हाहाकार मचि जाइत अछि। लक्ष्मी जी वृंदा सँ प्रार्थना करय लगैत छैथि तखन वृंदा अपन श्राप वापस लैत छैथि आ भगवान विष्णु कें मुक्त कऽ दैत छैथि। वृंदा अपन पति केर सिर के लऽ कऽ सती भऽ जाइत छैथि। हुनक राख सँ एकटा पौधाक जन्म होइत छैक जकर नाम तुलसी राखल जाइत अछि जे पाथर रूप मे भगवान विष्णु केर शालिग्राम रूप केर संग पूजा कयल जाइत अछि आ तुलसी भगवान विष्णु के सभ सँ बेसी प्रिय मानल जाइत छैन्ह। कातिक मास देवोत्थान के दिन तुलसीक विवाह मनाओल जाइत अछि।                              जय माँ तुलसी। सभक मनोकामना सदैव पूर्ण करैत रहबै !    Vibha jha   ,                                                       Nahar  Bhagwati pur , Madhubani,  Mithila