dahej mukt mithila

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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

जैसी करनी वैसी भरनी - Mamta Jha

आदिकाल से ही देखा गया है कि जो लोग जैसा भाव रखते हैं सबके प्रति उनको वैसा ही उपहार परिणाम में मिलता है।

महाभारत एक पूर्ण न्यायशास्त्र है और चीर-हरण उसका केन्द्रबिन्दु है ! इस प्रसङ्ग के बाद की पूरी कथा इस घिनौने अपराध के अपराधियों को मिले दण्ड की कथा है। वह दण्ड, जिसे निर्धारित किया भगवान श्रीकृष्ण ने,जिन्होंने किसी को नहीं भी छोड़ा... 

दुर्योधन ने उस अबला स्त्री को दिखा कर अपनी जंघा ठोकी थी, तो उसकी जंघा तोड़ी गयी। दुशासन ने छाती ठोकी तो उसकी छाती फाड़ दी गयी। महारथी कर्ण ने एक असहाय स्त्री के अपमान का समर्थन किया, तो श्रीकृष्ण ने असहाय दशा में ही उसका वध कराया।

भीष्म ने यदि प्रतिज्ञा में बंध कर एक स्त्री के अपमान को देखने और सहन करने का पाप किया, तो असँख्य तीरों में बिंध कर अपने पूरे कुल को एक-एक कर मरते हुए देखे... 

भारत का कोई बुजुर्ग अपने सामने अपने बच्चों को मरते देखना नहीं चाहता, पर भीष्म अपने सामने चार पीढ़ियों को मरते देखते रहे। जब तक सब देख नहीं लिया, तब तक मर भी न सके... यही उनका दण्ड था।  

धृतराष्ट्र का दोष था पुत्र मोह, तो सौ पुत्रों के शव को कंधा देने का दण्ड मिला उन्हें। सौ हाथियों के बराबर बल वाला धृतराष्ट्र सिवाय रोने के और कुछ नहीं कर सका।

दण्ड केवल कौरव दल को ही नहीं मिला था। दण्ड पांडवों को भी मिला। द्रौपदी ने वरमाला अर्जुन के गले में डाली थी, सो उनकी रक्षा का दायित्व सबसे अधिक अर्जुन पर था। अर्जुन यदि चुपचाप उनका अपमान देखते रहे, तो सबसे कठोर दण्ड भी उन्ही को मिला। अर्जुन पितामह भीष्म को सबसे अधिक प्रेम करते थे, तो श्रीकृष्ण ने उन्ही के हाथों पितामह को निर्मम मृत्यु दिलाई। अर्जुन रोते रहे, पर तीर चलाते रहे... क्या लगता है, अपने ही हाथों अपने अभिभावकों, भाइयों की हत्या करने की ग्लानि से अर्जुन कभी मुक्त हुए होंगे क्या नहीं..   वे जीवन भर तड़पे होंगे। यही उनका दण्ड था।

युधिष्ठिर ने स्त्री को दांव पर लगाया, तो उन्हें भी दण्ड मिला। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य और धर्म का साथ नहीं छोड़ने वाले युधिष्ठिर ने युद्धभूमि में झूठ बोला, और उसी झूठ के कारण उनके गुरु की हत्या हुई। यह एक झूठ उनके सारे सत्यों पर भारी रहा... 

धर्मराज के लिए इससे बड़ा दण्ड क्या होगा?

दुर्योधन को गदायुद्ध सिखाया था स्वयं बलराम ने। एक अधर्मी को गदायुद्ध की शिक्षा देने का दण्ड बलराम को भी मिला। उनके सामने ही उनके प्रिय दुर्योधन का वध हुआ और वे चाह कर भी कुछ न कर सके... 

उस युग में दो योद्धा ऐसे थे जो अकेले सबको दण्ड दे सकते थे, श्रीकृष्ण और बर्बरीक। 

 श्रीकृष्ण ने ऐसे कुकर्मियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने तक से मना कर दिया जिससे आततायियों को पीड़ित ही दंड दे सके तथा बर्बरीक को भी रोक दिया क्योंकि यदि बर्बरीक का वध नहीं हुआ होता तो द्रौपदी के अपराधियों को यथोचित दण्ड नहीं मिल पाता। श्रीकृष्ण युद्धभूमि में विजय और पराजय तय करने के लिए नहीं उतरे थे, वे तो कृष्णा के अपराधियों को दण्ड दिलाने उतरे थे।

कुछ लोग कर्ण का बड़ा महिमामण्डन करते हैं । कर्ण कितना भी बड़ा योद्धा या कितना भी बड़ा दानी क्यों न रहा हो, एक स्त्री के वस्त्र-हरण में सहयोग का पाप इतना बड़ा है कि उसके समक्ष सारे पुण्य छोटे पड़ जाएंगे। द्रौपदी के अपमान में किये गए सहयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि वह महानीच व्यक्ति था और उसका वध ही धर्म था। 

स्त्री कोई वस्तु नहीं कि उसे दांव पर लगाया जाय।

श्रीकृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बाल से पकड़ कर घसीटा गया। देवकी का बाल पकड़ा कंस ने, और द्रौपदी का बाल पकड़ा दुशासन ने। श्रीकृष्ण ने स्वयं दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया। किसी स्त्री के अपमान का दण्ड अपराधी के समूल नाश से ही पूरा होता है।  भले वह अपराधी विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न हो... यही न्याय है , यही धर्म है... 

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