ऋतु वसंत केर आगम होइते
भेल बियाह पुरल अभिलाष,
कविक कल्पना सँ बढिकऽ छल
सासुरक सुख आ भोग विलास।
फगुआ खेलल फाँनि फाँनि कऽ
चैतो चित में चैन नें भेल,
सारि सार सरहोजनिक स्नेहक
रंग दिनों दिन चढ़िते गेल।
सुखद दिवस अवकाशक बीतल
टिकट कटल परदेशक लेल,
सुनिते सुन्नरि सुन्न लगै छलि
नयनक नोर टघरिते गेल।
द्रवित भेलहुँ दु:ख देखि धनि कें
रहि रहि फाटल हमरो कोंढ,
दू चारि दस दिन आर बिताबी
सोचल घुरि फिरि मनुआं मोर।
मुदा कोना बितलै नैं जानी
चैत बैशाखक नमहर दिन,
बिदा भेलहुँ निज कर्मक्षेत्र कऽ
लगै जेना आएल दुर्दिन।
चढल बस दरिभंगा अएलहुँ
भेटल गामक नबका मित्र,
मुखमण्डल मुस्की दऽ बाजल
भाई लगै छी कियै विचित्र?
सुनिते मातर फाटि गेलौं हम
रसफट्टू कलकतिया सन,
कहलौं विरहक ब्यथा जड़ाबए
जेठक ठेठ दुफरिया सन।
ओकरो ह्रदय करुण भेल सुनिते
कहलक किछु योजना बनाउ
पेट दर्द के करू बहन्ना
पुन:घूरि कऽ सासुर जाउ।
लागल प्राण कतौ सँ पलटल
घुरती बस में बैसलौं,जाइ
पहुंचि गेलहुँ निशभेर राति में
धूआँ सन के मुँह लटकाय।
कनियाँ रहि रहि तेल मलै छल
पैर जतै छलि मिठगर सारि,
कबुला पाती सासु करै छलि
राई जमैनक नजरि उतारि।
कतेक दिन धरि ठकलौं सभकें
बीतल बियाहक तेसर मास,
ओझा कहिया धरि अछि छुट्टी?
अबिते बजलीह पितिया सासु।
ओही बात पर सारो पुछलक
कोन चाकरी अहाँ करी?
तीन मास सँ एतै रहै छी
एहन कोन भेटल नोकरी ?
लाजे बिदा भेलहुँ दिल्ली कऽ
कनियाँ कनियें भेली उदास,
कहलनि जाउ मोन में राखब
कैंचा बिनु नहि भोग विलास।
मैनेजर छल चंठ स्वभावक
कान पकड़ि कऽ देलक भगा,
दिल्लीसेटक लेवल उतरल
बेरोजगार बर देलक बना।
एम्हर ओम्हर नजरि गड़ौनें
ताकि रहल छी दोसर काज,
कनियाँ पुछती तऽ की कहबनि?
सोचिते हमरा होइयै लाज।
आभा झा के कलम सं-