मनुक्ख (कविता)
जिनगीक कैनभस पर,
अपन कर्मक कूची सँ,
चित्र बनेबा मे अपस्याँत मनुक्ख,
भरिसक आइयो अपन हेबाक
अर्थ खोजि रहल अछि।
हजारो-लाखो बरख सँ,
बहैत इ जिनगीक धार,
कतेक बिडरो केँ छाती मे नुकेने,
भरिसक आइयो अपन सृजनक
अर्थ खोजि रहल अछि।
राजतन्त्र सँ प्रजातन्त्र धरि,
ऊँच-नीचक गहीर खाधि,
सुरसाक मुँह जकाँ बढले अछि,
भरिसक आइयो इ तन्त्र सभक
अर्थ खोजि रहल अछि।
कखनो करेजक बरियारी,
कखनो मोनक राज सहैत,
बढले जाइ छै मनुक्खक जिनगी,
भरिसक आइयो मोन आ करेजक
अर्थ खोजि रहल अछि।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें