।। अश्रुपात ।।
" निज सजल नयन को पोछ रही "
निर्धनता के उस आँचल से
पलकर जब बेटी बड़ी हुई ।
जीवन नव निर्मित की आशा
लेकर के जब वह खड़ी हुई ।।
चिन्ताग्नि चिता पर लेटी माँ
निज सजल नयन को पोछ रही ।
अभिशप्त दीनता सा कोई
क्या दुःख - दारुण और मही ? ।।
दानव - दहेज सुरसा बैठी
अतृप्त महा - मुख तृषित खोल ।
हीरे मोती की बात और
है, कौड़ी का भी महा मोल ।।
शिक्षित इन्सान ज्ञान खोकर
है बना बैल - बाजार यहाँ ।
जो लाख करोड़ो कीमत पर
संतोष नही , तकरार यहॉ ।।
पग थका घिसा पथ मन हारा
अगनित ठोकर खा विपुल गली ।
उस विवश बाप का आर्तनाद
से , नही झुका वो महा - बली ।।
बोला वह बाप , अरी बेटी
जो हारा थका ब्यथित मन से ।
वह नर्क बहुत होगा सुन्दर
इस निर्धनता के जीवन से ।।
बाबुल कैसा धनवान यहाँ
बेटी का बोझ न सह पाया ।
वह विरह वेदना निज मन की
माँ का आँचल ही कहपाया ।।
तुझे जन्म दिया जब माँ रोई
अब रोरहा यह बाप तेरा ।
है तुझको रोना जीवन भर
नारी जनम अभिशाप तेरा ।।
कल्पित यह सुन्दर सपना क्या
क्या आशा और निराशा है ।
पराधीन नारी जीवन की
यह झूठी सब अभिलाषा है ।।
कठपुतली जीवन नारी तुम
है , तेरा अपना अस्तित्व कहाँ ।
पुरुषो की केवल इच्छा बन
जो नाच रही नित यहाँ - वहाँ ।।
रचयिता
रेवती रमण झा "रमण"
" निज सजल नयन को पोछ रही "
निर्धनता के उस आँचल से
पलकर जब बेटी बड़ी हुई ।
जीवन नव निर्मित की आशा
लेकर के जब वह खड़ी हुई ।।
चिन्ताग्नि चिता पर लेटी माँ
निज सजल नयन को पोछ रही ।
अभिशप्त दीनता सा कोई
क्या दुःख - दारुण और मही ? ।।
दानव - दहेज सुरसा बैठी
अतृप्त महा - मुख तृषित खोल ।
हीरे मोती की बात और
है, कौड़ी का भी महा मोल ।।
शिक्षित इन्सान ज्ञान खोकर
है बना बैल - बाजार यहाँ ।
जो लाख करोड़ो कीमत पर
संतोष नही , तकरार यहॉ ।।
पग थका घिसा पथ मन हारा
अगनित ठोकर खा विपुल गली ।
उस विवश बाप का आर्तनाद
से , नही झुका वो महा - बली ।।
बोला वह बाप , अरी बेटी
जो हारा थका ब्यथित मन से ।
वह नर्क बहुत होगा सुन्दर
इस निर्धनता के जीवन से ।।
बाबुल कैसा धनवान यहाँ
बेटी का बोझ न सह पाया ।
वह विरह वेदना निज मन की
माँ का आँचल ही कहपाया ।।
तुझे जन्म दिया जब माँ रोई
अब रोरहा यह बाप तेरा ।
है तुझको रोना जीवन भर
नारी जनम अभिशाप तेरा ।।
कल्पित यह सुन्दर सपना क्या
क्या आशा और निराशा है ।
पराधीन नारी जीवन की
यह झूठी सब अभिलाषा है ।।
कठपुतली जीवन नारी तुम
है , तेरा अपना अस्तित्व कहाँ ।
पुरुषो की केवल इच्छा बन
जो नाच रही नित यहाँ - वहाँ ।।
रचयिता
रेवती रमण झा "रमण"