मैथिलों में भाषा प्रेम किसी भी और क्षेत्र के लोगों से अधिक था। 1900 से ही कविवर चन्दा झा , रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा अंग्रेज़ सरकार के द्वारा दरभंगा महाराज के राजकीय सेवा में उर्दू थोपने के विरोध में विद्यार्थियों ने मैथिली भाषा के पक्ष में आंदोलन किया था। बाद में 1929 में दरभंगा महाराज के प्रयासों से “मैथिली साहित्य परिषद “ की स्थापना हुई जिसके अन्तर्गत मैथिली भाषा के प्रचार प्रसार हुआ । 1947 एवं 1950 में जब भारतीय भाषाओं को भारतीय संविधान में जगह दी जा रही थी तब भी मैथिली भाषा भारत सरकार के द्वारा उपेक्षित रही , तब 1950 के दशक से ही मैथिली भाषा के लिए आंदोलन तेज हो गया । दरभंगा महाराज के प्रयासों 1965 में इस आंदोलन ने रफ्तार पकड़ी जब राजकमल चौधरी, हरिमोहन झा, रामवृक्ष बेनीपुरी जी के नेतृत्व में “मिथिला विश्वविद्यालय” की स्थापना हुई । बाद में बिहार के मुख्यमंत्री के साशन काल में स्वर्गीय जगन्नाथ मिश्र जी से आशा बनी की मैथिली भाषा को बिहार की द्वितीय भाषा का सम्मान प्राप्त होगा लेकिन उन्होंने उर्दू भाषा को बिहार के द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया जिसके कारण उनका पतन हो गया । यह मैथिली भाषा के इतिहास में सबसे बड़ी असफलता थी । तीन दशक के करीब लंबे संघर्ष के बाद 2003 में भारतवर्ष के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के द्वारा मैथिली भाषा को संविधान में समाहित किया गया। मैथिली भाषा के आंदोलन में शिला दीक्षित जी का नाम भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है जिन्होंने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 2008 में मैथिली- भोजपुर अकादमी की स्थापना कर मैथिली- भोजपुरी समुदाय के निवासियों के भाषाई पहचान को संरक्षित करने का कार्य किया । हालांकि आज मैथिली भाषा अपने ऐतिहासिक पतन की ओर अग्रसर है। उसकी भाषाई,सांस्कृतिक अवस्थिति लगभग गर्त में जा चुकी है। अपने सांस्कृतिक इतिहास को भुनाकर चीज़ें चल रही हैं। आज मैथिली भाषा साहित्य के पास दुनिया को देने के लिए कुछ नहीं है। वह ख़ुद दूसरों की ओर उम्मीद से देख रहा है। नकल और सांस्कृतिक पतन मैथिली भाषा के दो सत्य हैं। मातृभाषा दिवस