वैदिक मन्त्रों में उच्चारण तथा स्वर की शुद्धता पर अत्यधिक बल दिए जाने के कारण जब समाज के अधिकांश लोग धर्म एवं उपासना से दूर होने लगे तो आगम-पद्धति का प्रचलन हुआ।
इसमें लौकिक संस्कृत भाषा के पौराणिक मंत्र थे तथा अतिथि-सत्कार की शैली में मूर्ति-पूजा या मूर्ति-पूजा या मानसिक पूजा की जाती थी। जल, फूल, चंदन, नैवेद्य आदि अर्पित वस्तुओं पर विशेष जोर था, मन्त्र पर कम ध्यान दिया जाता था।
इस नई आगम-पद्धति ने एक बार फिर समाज के सभी वर्णों को उपासना के स्तर पर जोड़ने का काम किया।
आगे लगभग 8वीं शती में जब क्षेत्रीय भाषाओं का विकास आरम्भ हुआ तब संस्कृत की पौराणिक भाषा भी दुर्बोध होती गयी तो जनभाषा को धर्म की भाषा बनाया गया। इसके शाबर मन्त्र आज भी सर्वथा विस्मृत नहीं हुए हैं, जिन्हें हम लोकभाषा में स्तुतियाँ कह सकते हैं।
यह p सिद्धों और नाथों के सम्प्रदाय में सर्वाधिक हुआ। वास्तव में भारत के धार्मिक आन्दोलन का यह दूसरा प्रखर आंदोलन था, जिसने उपासना के स्तर पर समाज को एकसूत्र में बाँधने का कार्य किया।
इसी काल में उत्तर भारत की धार्मिक परम्पराओं में लोकभाषा के माध्यम से शिव की उपासना जन-जन तक फैली। सिद्ध सम्प्रदाय अनीश्वरवादी था लेकिन नाथ सम्प्रदाय ने ईश्वरवाद का रास्ता अपनाया और आदिनाथ शिव को अपनी परम्परा में आदिगुरु के रूप में स्थापित किया।
इसी शिव के साथ अभिन्न रूप में शक्ति को जोड़कर शाक्त-आगमों के साथ समन्वय स्थापित किया गया, जिसे शंकराचार्य ने भी ‘सौन्दर्य लहरी’ में शिवः शक्त्या युक्तः कहकर समन्वय का सूत्र दिया।
अगस्त्य संहिता ने रामोपासना को शैव-परम्परा के साथ जोड़ने का अद्भुत कार्य किया, जिसे तुलसीदास ने शिव के मुख से रामचरित कहाकर व्यापक प्रसार दिया।
मिथिला के कपिलेश्वरस्थान, जमुथरि के गौरीशंकर स्थान तथा हाजीपुर के गौरीशंकर स्थान में शिवलिंग पर राम गायत्री तथा रामपद का अंकन हमें इसी समन्वय का सूत्र देता है। फलतः उत्तर भारत में शैव परम्परा का प्रचार सबसे अधिक रहा।
शिव मन्दिरों से इस नाथ सम्प्रदाय की गतिविधियाँ चलती थी। अतः हमें उत्तर भारत के अधिकांश शिव मन्दिरों के नाम में ‘ईश्वर’ अथवा ‘नाथ’ शब्द दिखाई देते हैं। संस्कृत में दोनों शब्द स्वामी के अर्थ में प्रचलित हैं, लेकिन कभी कभी हम ‘नाथ’ शब्द का प्रयोग ‘पति’ आदि स्वामीवाचक शब्दों के साथ भी देखते हैं, जैसे पशुपतिनाथ। अतः हम यह मान सकते हैं कि शैव परम्परा के जो प्राचीन शिव मन्दिर नाथ सम्प्रदाय की गतिविधि के केन्द्र रहे थे उनके साथ नाथ शब्द जुड़ा और उसी अवधारणा के अनुरूप बहुत सारे नव स्थापित शिव मन्दिरों के नामकरण में भी ‘नाथ’ शब्द जुड़े।
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