मत-त्रय-समन्वय
(शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य)~~~~~~~~~~
ईश और आत्मा एक ही है.. दोनों चैतन्य(awareness)हैं-शंकर..
ईश और आत्मा में फल और स्वाद की तरह एक्य है तथा दोनों अग्नि और स्फुल्लिंग की तरह हैं तथा दोनों का गुणात्मक अद्वैत तथा मात्रात्मक द्वैत है-रामानुज..
ईश और आत्मा दोनों भिन्न हैं तथा उनमें सेव्य और सेवक के भाव हैं-मध्व..
वेदानुसार, ईश और आत्मा शरीर में सह-अस्तित्व में हैं(द्वा सुपर्णासयुजासखाया..)
गीतानुसार, ईश आत्मायुक्त शरीर में प्रवेश करते हैं(मानुषींतनुमाश्रितम्..)
मानव शरीर में आत्मा ईश से, धात्विक तार में विद्युद्धारा की तरह मिल जाते हैं..
आत्मा(पराप्रकृति) और शरीर(अपराप्रकृति) में प्रकृति के उभयावयव हैं..स्वामी का घर सेवक द्वारा उपयुज्य है..
विद्युत्मय धात्विक तार ही विद्युत है(अद्वैत)..
विद्युत् शक्ति का बड़ा भाग तथा तार छोटा धात्विक भाग है.. ईश आत्मा को आँख की तरह उपयोग करता है(विशिष्टाद्वैत)..
विद्युत एलेक्ट्रोन की धारा तथा तार स्फटिकों की श्रृंखला है और दोनों भिन्न हैं(द्वैतवाद)..
'त्वमेवाहम्'-शंकर का उद्घोष है..
'तवैवाहम्'-रामानुज का उद्घोष है..
'तस्यैवाहम्'-मध्व का उद्घोष है..
विद्युत्धारा और धात्विक तार की उपमा यहाँ सर्वोत्कृष्ट है..
यदि विद्युत् शक्तिगृह में हो और घर में अनेक विद्युत -रहित तार हो तो अद्वैत के अनुसार विद्युत और तार(ऊर्जा और पदार्थ) परस्पर परिवर्तनीय होने के कारण एक ही है.. यदि यह सत्य है तो विद्युतरहित तार में भी झटका देना चाहिए.. विशिष्टाद्वैत के अनुसार, विद्युत और तार अवियोज्य है-यह भी असहज प्रतीत होता है क्योंकि दोनों ही अलग और दूर हैं.. द्वैत के अनुसार विद्युत शक्तिगृह मेहो तथा धात्विक तार यहाँ घर में हो तो दोनों ही भिन्न हैं..
सर्वव्यापी विद्युत और विद्युतीकृत तार व्यावहारिक अर्थ में एकरूप हैं(शंकर)..अ-पार्थक्य के कारण वे एक ही माने जाने योग्य हैं(रामानुज)..
वेद के अनुसार ईश(चैतन्य) श्रृष्टि में प्रवेश किया(तदेवानुप्राविशत्..), किन्तु चैतन्य के सर्वत्र विद्यमान नहीं होने से ईश का प्रवेश आंशिक है.. यदि कोई घर प्रवेश करे तो वह किसी एक भाग में ही उपलभ्य है.. अतस्तु कुछ खास भक्त-जनों के अतिरिक्त,हर जीवात्मा चेतन नहीं है..
ईश चैतन्य के अतिरिक्त 'विशिष्ट ज्ञान से भी चिह्नित है जो सम्बन्धों से सम्बन्धित कहा जा सकता है..
अब समझना है कि तीनों मत एक ही स्थिति के तीन दृष्टिकोण हैं..
विद्युत-प्रबाहित तार को हर व्यवहार में तार कहना क्योंकि छूने पर आघात देता है(शंकर)..
भिन्न होते हुए भी धारा-प्रबाह की दशा में अपृथक नहीं हो सकते(रामानुज)..
शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी से हम एलेक्ट्रोन-धारा(विद्युत) को स्फटिक-श्रृंखला(तार) से भिन्न-भिन्न देख सकते हैं(मध्व)..
इस प्रकार तीनों मतों का पारस्परिक सम्बन्ध जो एक दूसरेके विरुद्ध नहीं होते..
पर यदि शक्ति-गृह की शक्ति तथा विद्युतरहित तार के मध्य ये त्रिमत ले आना हास्यास्पद होगा..हाँ, विद्युत के प्रबाह-योग से घर पर रखे तार में तो विजली आ ही सकती है..
ईश और आत्मा दोनों में चेतनता(awareness) है..शंकर कहते हैं-आत्मा ही ईश है.. रामानुज कहते हैं-ईश से आत्मा का पृथकत्व असम्भव है.. मध्व कहतेहैं-गुणात्मक अन्तर से ईश और आत्मा भिन्न हैं..
(भले विद्युत शक्तिगृह में हो,आपके घर के रखे अच्छे तार उच्चात्मा के तथा बोरे बाँधनेवाले तार हीनात्मा के प्रतीक हैं..
तीनों मतों में ईश 'चैतन्य(awareness) है जो ईश और आत्मा में है.. आत्मा ही ईश है(शंकर)..आत्मा से ईश का विलगाव असम्भव है(रामानुज)..भिन्न गुणों वाले होने के कारण ईश और आत्मा पृथक हैं(मध्व)..
मूलाधार यह है कि ईश चैतन्य है, चयनित आत्माओं के लिए.. श्रृष्टि में अक्रिय वस्तुओं में चेतनता नहीं है.. योजक 'ईश' को चैतन्य-तल पर युज्य आत्मा कह सकते हैं जैसे सेववाले को ऐसेव! कहते हैं..
ईश अकल्पनीय है, चेतनता कल्पनीय है.. गीतानुसार, ईश अज्ञेयहै(मां तु वेद न..)वेदानुसार भी अपरिमेय है(नैषा तर्केण..) ईश स्वशक्ति से सोच सकता है तथा उसे चेतनता की आवश्यकता नहीं है.. वह स्वयं चेतनता है..
शंकर कोपूर्वमीमांसकों, नास्तिकों, बुद्धवादियों से कहना पड़ा-आत्मा ईश है.. आत्मा है तो ईश अवश्य है.. परिणाम हुआ कि सभी नास्तिक स्वयं को अस्तित्व-मय मानकर ईश समझने लगे.. इससे नास्तिकों को आस्तिक बनने में सहायता मिली..दूसरे स्तर पर उन्हें अपना 'आत्मा' होना सिखाया गया.. शंकर नेकहा-'ईश्वरानुग्रहादेव..'(ईश बनने हेतु ईशकृपा चाहिए ही..)
मानवान्तरण के अर्थ में शंकर ने आत्मा को ईश कहा..किन्तु विरूपित अर्थ में भी सत्य यह है कि 'प्रत्येक आत्मा को ईश होने का अवसर प्राप्य है'..मानवावतार मात्र ईशेच्छा से सम्भावित होने के कारण 'भक्ति' से सम्भव नहीं है.. भक्ति पर प्रयास अवश्य हो..
रामानुज के समय भक्त-जन मानवावतार हेतु ईशोपासना में लगे थे.. उसने कहा-आप ईश के ही अंश हैं, किन्तु इस सान्त्वना से काम न चला.. अकल्पनीय ईश का कोई ज्ञात भाग(आत्मा) कैसे होगा!..रामानुज ने धीरे धीरे उन्हें शान्त किया कि ईश और आत्मा दोनों चैतन्यमय हैं..
और फिर-मध्व ने बाद में उन्हें ,समझाया कि ईश और आत्मा में द्वित्व है.. आत्मा ज्योंही ईशत्व की कामना करता है, वह भाग्य से विफल हो जाता है.. अतः अपनी ओर से ईच्छा न रखें..
विज्ञान के अनुसार-ईश्वर अकल्प्य है तथा आत्मा कल्प्य स्नायविक ऊर्जा और स।जन का भाग..आकांक्षा-रहित होकर आत्मा का 'ईश' होना सबके हेतु एक मुक्त अवसर है.. अतः, तीनों मत त्रिकालसत्य है, अन्तर मात्र प्रापक की आध्यात्मिक अवस्था की है..
शंकराचार्य को शिव, रामानुजाचार्य को विष्णु तथा मध्वाचार्य को ब्रह्मा स्वरूप स्वीकार करना ही हमारी सहृदयता है..
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