चलो जन्तर-मन्तर पर! ५ दिसम्बर, २०१३!
(जन्तर-मन्तरपर विशाल धरना प्रदर्शन - मिथिला राज्यके समर्थनमें - संसदमें रखे गये बिलपर सकारात्मक बहसके लिये राजनीतिक शक्तियोंसे सामूहिक अनुरोध के लिये।)
वैसे तो मिथिला राज्यका माँग स्वतंत्रता पूर्वसे ही किया जा रहा है, स्वतंत्रता उपरान्त भी यह माँग देशकी प्रथम संविधान सभाके सत्रोंसे लेकर राज्य पुनर्गठन आयोग तक मंथनका विषय बननेके बावजूद राजनीतिपूर्वक किसी न किसी बहानेमे नकारा गया और मैथिली सहित मिथिलाके भविष्यको पहचानविहीनताकी रोगसे आक्रान्त किया गया जो निसंदेह किसी गणतंत्रात्मक प्रजातांत्रीक मुल्कके सर्वथा-हितमे नहीं हो सकता है। फलस्वरूप अब मिथिलाका वो स्वर्णिम समय दुबारा भारतको शास्त्र-महाशास्त्रके साथ आध्यात्मिक दर्शनकी पराकाष्ठापर पहुँचा सके, हाँ आज इतना तो जरुर है कि मिथिलाके मिट्टी और पानीसे सींचित व्यक्तित्व न केवल राष्ट्रमे बल्कि समूचे ग्लोबपर अपनी उपस्थिति ऊपरसे नीचेतक हर पद व स्थानपर महिमामंडित करते हैं, लेकिन मूलसे बिपरीत आज सामुदायिक कल्याण निमित्त नहीं होता - बस व्यक्तिगत विकास केवल लक्ष्य बनकर पहचानविहीनताके रोगसे मिथिला-संस्कृति विलोपान्मुख बनते जा रहा है। ऐसेमें यदि अब स्वतंत्रताका लगभग ७ दशक बीतने लगनेपर भी मिथिलाको स्वराज्यसे संवैधानिक सम्मान नहीं दिया गया तो मिथिलाका मरणके साथ भारतकी एक विलक्षण संस्कृतिका खात्मा तय है।
भारतमे विभिन्न नये राज्य बनानेकी परिकल्पना आज भी निरंतर चर्चामें रहता ही है। संसदसे सडकतक इस विषयपर नित्य विरोधसभा और संघर्ष कर रही है यहाँकी जनता, खास करके जिनका पहचान समाप्तिकी दिशामे बढ रहा है और उपनिवेशी पहचानकी बोझसे अधिकारसंपन्नताकी जगह विपन्नता प्रवेश पा रहा है वहाँपर नये राज्योंकी सृजना अनिवार्य प्रतीत होता है। बिहार अन्तर्गत मिथिला हर तरहसे पिछड गया, ना बाढसे मुक्ति मिल सका, ना पूर्वाधारमें किसी तरहका विकास, ना उद्योग, ना शिक्षा, ना कृषिमें क्रान्ति या आत्मनिर्भरता, ना भूसंरक्षण या विकास, ना जल-प्रबंधन और ना ही किसी तरहका लोक-संस्कृतिकी संवर्धन वा प्रवर्धन हुआ। बस नामके लिये सिर्फ मिथिलादेश अब मिथिलाँचल जैसा संकीर्ण भौगोलिक सांकेतिक नामसे बचा हुआ है। राजनीति और राजनेताके लिये मिथिलाका पिछडापण मुद्दा तो बना हुआ है लेकिन वो सारा केवल कमीशनखोरी, दलाली, ठीकेदारी, लूट-खसोट और अपनी राजनैतिक लक्ष्यतक पहुँचने भर के लिये। मिथिला भारतीय गणतंत्रमें मानो दूधकट्टू संतान जैसा एक विचित्र पहचान 'बिहारी' पकडकर मैथिली जैसे सुमधुर भाषासे नितान्त दूर 'बिहारी-हिन्दी'की भँवरमें फँसकर रह गया है।
जिस बलसे मिथिला कभी मिथिलादेश कहा जाता रहा, जिस तपसे जहाँकी धरासे साक्षात् जगज्जननी स्वयं सिया धियारूपमे अवतार लीं, जहाँ राजनीति, न्याय, सांख्य, तंत्र, मिमांसा, रत्नाकर आदि सदा हवामें ही घुला रहा... उस मिथिलाको पुनर्जीवन प्रदान करने के लिये स्वराज्य देना भारतीय गणतंत्रकी मानवृद्धि जैसा होगा - अत: मिथिला राज्यकी माँगवाली विधेयक काफी अरसेके बाद फिरसे भारतीय संसदमें बहसके लिये आ रही है। किसी एक नेता या किसी खास दलका प्रयास भले इसके लिये ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो, लेकिन जरुरत तो सभी पक्षों और राष्ट्रीय सहमतिका है जो इस माँगकी गंभीरताको समझते हुए वगैर किसी तरहका विद्वेषी और विभेदकारी आपसी फूट-फूटानेवाली राजनीति किये न्यायपूर्ण ढंगसे मिथिला राज्यको संविधान द्वारा मान्यता प्रदान करे। इसमें कहीं दो मत नहीं है कि नेतृत्वकी भूमिकामें जितने भी संस्था, व्यक्ति, समूह, आदि भले हैं, पर मुद्दा तो एकमात्र 'मिथिला राज्य' ही है और इसके लिये एकजुटता प्रदर्शनके समयमें हम सब मात्र मिथिला राज्यका समर्थक भर हैं और मिथिलाकी गूम हो रही अस्मिताकी संरक्षणके लिये, मिथिलाकी चौतरफा विकासके लिये, मिथिलाकी खत्म हो रही लोक-संस्कृति और लोक-पलायनको नियंत्रित रखने के लिये अपनी उपस्थिति जरुर दिल्लीके जन्तर-मन्तरपर और भी अधिक लोगोंको समेटते हुए जरुर दें। तारीख ५ दिसम्बर, समय १० बजेसे, स्थान जन्तर-मन्तर, संसद मार्ग, नयी दिल्ली!
मिथिलावासी एक हो! एक हो!! एक हो!!
एकमात्र संकल्प ध्यानमे!
मिथिला राज्य हो संविधानमे!!
भीख नहि अधिकार चाही!
हमरा मिथिला राज्य चाही!!
जय मिथिला! जय जय मिथिला!!
(जन्तर-मन्तरपर विशाल धरना प्रदर्शन - मिथिला राज्यके समर्थनमें - संसदमें रखे गये बिलपर सकारात्मक बहसके लिये राजनीतिक शक्तियोंसे सामूहिक अनुरोध के लिये।)
वैसे तो मिथिला राज्यका माँग स्वतंत्रता पूर्वसे ही किया जा रहा है, स्वतंत्रता उपरान्त भी यह माँग देशकी प्रथम संविधान सभाके सत्रोंसे लेकर राज्य पुनर्गठन आयोग तक मंथनका विषय बननेके बावजूद राजनीतिपूर्वक किसी न किसी बहानेमे नकारा गया और मैथिली सहित मिथिलाके भविष्यको पहचानविहीनताकी रोगसे आक्रान्त किया गया जो निसंदेह किसी गणतंत्रात्मक प्रजातांत्रीक मुल्कके सर्वथा-हितमे नहीं हो सकता है। फलस्वरूप अब मिथिलाका वो स्वर्णिम समय दुबारा भारतको शास्त्र-महाशास्त्रके साथ आध्यात्मिक दर्शनकी पराकाष्ठापर पहुँचा सके, हाँ आज इतना तो जरुर है कि मिथिलाके मिट्टी और पानीसे सींचित व्यक्तित्व न केवल राष्ट्रमे बल्कि समूचे ग्लोबपर अपनी उपस्थिति ऊपरसे नीचेतक हर पद व स्थानपर महिमामंडित करते हैं, लेकिन मूलसे बिपरीत आज सामुदायिक कल्याण निमित्त नहीं होता - बस व्यक्तिगत विकास केवल लक्ष्य बनकर पहचानविहीनताके रोगसे मिथिला-संस्कृति विलोपान्मुख बनते जा रहा है। ऐसेमें यदि अब स्वतंत्रताका लगभग ७ दशक बीतने लगनेपर भी मिथिलाको स्वराज्यसे संवैधानिक सम्मान नहीं दिया गया तो मिथिलाका मरणके साथ भारतकी एक विलक्षण संस्कृतिका खात्मा तय है।
भारतमे विभिन्न नये राज्य बनानेकी परिकल्पना आज भी निरंतर चर्चामें रहता ही है। संसदसे सडकतक इस विषयपर नित्य विरोधसभा और संघर्ष कर रही है यहाँकी जनता, खास करके जिनका पहचान समाप्तिकी दिशामे बढ रहा है और उपनिवेशी पहचानकी बोझसे अधिकारसंपन्नताकी जगह विपन्नता प्रवेश पा रहा है वहाँपर नये राज्योंकी सृजना अनिवार्य प्रतीत होता है। बिहार अन्तर्गत मिथिला हर तरहसे पिछड गया, ना बाढसे मुक्ति मिल सका, ना पूर्वाधारमें किसी तरहका विकास, ना उद्योग, ना शिक्षा, ना कृषिमें क्रान्ति या आत्मनिर्भरता, ना भूसंरक्षण या विकास, ना जल-प्रबंधन और ना ही किसी तरहका लोक-संस्कृतिकी संवर्धन वा प्रवर्धन हुआ। बस नामके लिये सिर्फ मिथिलादेश अब मिथिलाँचल जैसा संकीर्ण भौगोलिक सांकेतिक नामसे बचा हुआ है। राजनीति और राजनेताके लिये मिथिलाका पिछडापण मुद्दा तो बना हुआ है लेकिन वो सारा केवल कमीशनखोरी, दलाली, ठीकेदारी, लूट-खसोट और अपनी राजनैतिक लक्ष्यतक पहुँचने भर के लिये। मिथिला भारतीय गणतंत्रमें मानो दूधकट्टू संतान जैसा एक विचित्र पहचान 'बिहारी' पकडकर मैथिली जैसे सुमधुर भाषासे नितान्त दूर 'बिहारी-हिन्दी'की भँवरमें फँसकर रह गया है।
जिस बलसे मिथिला कभी मिथिलादेश कहा जाता रहा, जिस तपसे जहाँकी धरासे साक्षात् जगज्जननी स्वयं सिया धियारूपमे अवतार लीं, जहाँ राजनीति, न्याय, सांख्य, तंत्र, मिमांसा, रत्नाकर आदि सदा हवामें ही घुला रहा... उस मिथिलाको पुनर्जीवन प्रदान करने के लिये स्वराज्य देना भारतीय गणतंत्रकी मानवृद्धि जैसा होगा - अत: मिथिला राज्यकी माँगवाली विधेयक काफी अरसेके बाद फिरसे भारतीय संसदमें बहसके लिये आ रही है। किसी एक नेता या किसी खास दलका प्रयास भले इसके लिये ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो, लेकिन जरुरत तो सभी पक्षों और राष्ट्रीय सहमतिका है जो इस माँगकी गंभीरताको समझते हुए वगैर किसी तरहका विद्वेषी और विभेदकारी आपसी फूट-फूटानेवाली राजनीति किये न्यायपूर्ण ढंगसे मिथिला राज्यको संविधान द्वारा मान्यता प्रदान करे। इसमें कहीं दो मत नहीं है कि नेतृत्वकी भूमिकामें जितने भी संस्था, व्यक्ति, समूह, आदि भले हैं, पर मुद्दा तो एकमात्र 'मिथिला राज्य' ही है और इसके लिये एकजुटता प्रदर्शनके समयमें हम सब मात्र मिथिला राज्यका समर्थक भर हैं और मिथिलाकी गूम हो रही अस्मिताकी संरक्षणके लिये, मिथिलाकी चौतरफा विकासके लिये, मिथिलाकी खत्म हो रही लोक-संस्कृति और लोक-पलायनको नियंत्रित रखने के लिये अपनी उपस्थिति जरुर दिल्लीके जन्तर-मन्तरपर और भी अधिक लोगोंको समेटते हुए जरुर दें। तारीख ५ दिसम्बर, समय १० बजेसे, स्थान जन्तर-मन्तर, संसद मार्ग, नयी दिल्ली!
मिथिलावासी एक हो! एक हो!! एक हो!!
एकमात्र संकल्प ध्यानमे!
मिथिला राज्य हो संविधानमे!!
भीख नहि अधिकार चाही!
हमरा मिथिला राज्य चाही!!
जय मिथिला! जय जय मिथिला!!