|| है मुरली धर की माया ||
काली रात कृष्ण की छँट कर
शुक्ल सलोना शशि ले आया ।
नव हरितिम परिधान धरा
श्रावण श्वेत - क्षीर वर्षाया ।।
राजित घन,चिकुर कच कुँचित
बड़ वारिज मुख मंड़ल पे ।
नीलाम्बर - पट जड़ित रत्न
तारावलि चन्द्र धवल पे ।।
किंशुक-कुण्डल कलित केवड़ा
कचनार - हार , नथ - बेली ।
बेगन बेली , बेणी - बिछिया
गेंदाएँ चारु चमेली ।।
हरसिंगार पैर की पैजनि
बिन्दिया रात की रानी ।
रच सोलह - श्रृंगार वत्तिसो
अभरण ललित सयानी ।।
गुलमोहर सुख - सेज सजी
चहुँ जुगनू जगमगवाती ।
आ प्रियतम , रजनीवाला
सजकर जो तुम्हे बुलाती ।।
कुसुमवाण निज पूर्ण कला -
युत अनुपम रूप किशोरी ।
आँखे अपलक खुली , धुली
आंसू बह नींद - निगोड़ी ।।
अश्रु बिंदु बड़ बह मन्दाकिनि
जो अगनित नदियाँ सारी ।
अंतरमन बड़ छिपी वेदना
लगती छवि कितनी न्यारी ।।
विरहानल का सुलग ताप
फैला सारे तन मन में ।
सात स्वर्ग अपवर्ग अतुल
सुख व्यर्थ धरा जीवन में ।।
घटे न पल - युग विभावरी
यहाँ सन्मुख शैल अचल है ।
प्राणान्त की पीड़ाएँ
रे ! हर छन हर प्रतिपल है ।।
मार्तण्ड का शुभागमन पर
जो पावन धरा धुली है ।
जल थल नभचर जीव जन्तु
की,स्वप्निल आँखे खुली है ।।
अलि गुंजन मधु खग कलख
बन कर्कश श्वान की बोली ।
मनमोहक मृदुलता कुसुम
कर प्रतिपल व्यंग ठिठोली ।।
ऐसी कितनी विरहिन सज
नित सुनी सेज पे रोती ।
कोमलाग्डी तन कामातुर
मन अश्रुपात से धोती ।।
व्यथित विछोही का स्वर्णिम
सब स्वप्न तिमिर ले जाता ।
निर्झर निर्मल जल तरंग
उस मन की पीर बताता ।।
अश्रु ओस दल अम्बुज बिखरा
है विरह व्यथा की पाती ।
उस प्रभात अरुणिम आभा-
में जो आकर जलजाती ।।
इस विछोही की पीड़ाएँ
कह ! कौन इसे लिख पाया ।
तड़प रही राधा - प्यारी
है मुरली धर की माया।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
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