।। तड़प रही नारी लाचार ।।
छिपी वेदना अन्तरमन
मुस्काती रहती सुरबाला ।
पियूँ विचुम्बित मधुराधर
खुला अधर जो मधुशाला ।।
विवश सुरा की मादकता में
खो देती जहाँ मर्यादा ।
धो जाम से अश्रु - बिन्दु
पी लेती है कुछ ज्यादा ।।
निज इच्छाएँ मार जगाती
इच्छा औरो की रहती ।
इस दर्द को कौन जानता
कव कितना वो क्यो सहती ।।
रे, एक अदाएँ पर गूँजे
जो वाह - वाह की ताली ।
हर पल जो मुस्काती रहती
री ! पगली , तू मतवाली ।।
है पिया सेज की शोभा
सिमटी जाने किन वाहों में ।
उसे पता क्या ? है मिलना
इन जीवन की राहो में ।।
चपल अदाओ में देखा
तिलभर तेरा रूप नही ।
जन आलोकित जो करती
उस जीवन में धुप नही ।।
निशि - वासर छलके यौवन
जहाँ सदा शुष्क - गागर से ।
पूछा ! कैसे घट भरता
अरे इस निर्जल - सागर से ।।
घुँघरू का हर बोल झूम
अरे मस्त अदाकारी में ।
बोला , रे घर छोड़ छुपा
कह, क्या है इस नारी में ? ।।
पीनेवाले प्यालों की
मदिरा को तू क्या जाना ।
मादकता में बहू बहन
क्या ? माता को पहचाना ।।
पहचानो गे नारी को
अरे कब वो दिन आएगा ? ।
भारत भूमि गर्व से मस्तक
यहाँ ऊँचा कर पाएगा ? ।।
मदिरालय के प्रागड़ण में
नित जीवन को मरते देखा ।
कानन का नव किसलय दल
मधुमास में झरते देखा ।।
मैखाने के प्याले में
वो जीवन , जलते देखा ।
अर्थ हीन आँचल का शिशु
फुटपाथ पर पलते देखा ।।
उस सिन्दूर की लाली पर
मदिरा बैठा पंख पसार ।
दुर्बल दुसह दीन सेज पर
तड़प रही नारी लाचार ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
छिपी वेदना अन्तरमन
मुस्काती रहती सुरबाला ।
पियूँ विचुम्बित मधुराधर
खुला अधर जो मधुशाला ।।
विवश सुरा की मादकता में
खो देती जहाँ मर्यादा ।
धो जाम से अश्रु - बिन्दु
पी लेती है कुछ ज्यादा ।।
निज इच्छाएँ मार जगाती
इच्छा औरो की रहती ।
इस दर्द को कौन जानता
कव कितना वो क्यो सहती ।।
रे, एक अदाएँ पर गूँजे
जो वाह - वाह की ताली ।
हर पल जो मुस्काती रहती
री ! पगली , तू मतवाली ।।
है पिया सेज की शोभा
सिमटी जाने किन वाहों में ।
उसे पता क्या ? है मिलना
इन जीवन की राहो में ।।
चपल अदाओ में देखा
तिलभर तेरा रूप नही ।
जन आलोकित जो करती
उस जीवन में धुप नही ।।
निशि - वासर छलके यौवन
जहाँ सदा शुष्क - गागर से ।
पूछा ! कैसे घट भरता
अरे इस निर्जल - सागर से ।।
घुँघरू का हर बोल झूम
अरे मस्त अदाकारी में ।
बोला , रे घर छोड़ छुपा
कह, क्या है इस नारी में ? ।।
पीनेवाले प्यालों की
मदिरा को तू क्या जाना ।
मादकता में बहू बहन
क्या ? माता को पहचाना ।।
पहचानो गे नारी को
अरे कब वो दिन आएगा ? ।
भारत भूमि गर्व से मस्तक
यहाँ ऊँचा कर पाएगा ? ।।
मदिरालय के प्रागड़ण में
नित जीवन को मरते देखा ।
कानन का नव किसलय दल
मधुमास में झरते देखा ।।
मैखाने के प्याले में
वो जीवन , जलते देखा ।
अर्थ हीन आँचल का शिशु
फुटपाथ पर पलते देखा ।।
उस सिन्दूर की लाली पर
मदिरा बैठा पंख पसार ।
दुर्बल दुसह दीन सेज पर
तड़प रही नारी लाचार ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
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