|| भूतल पर नारी नाम ही अनर्थ है ||
अयोध्या नगरी पर ग्रहण अब छा गया ।
जो चन्द्रमा के पास राहू आगया ।।
राम का था न्याय , या एक दर्द था ।
पूरी अयोध्या जिस समय बेपर्द था ।।
जब हो गई सीते कलंकित पाप से ।
वो है घृणित क्यों आज अपने आप से ।।
रे ! जानकी पर शोक सागर बह गया ।
यहाँ फैसला जो प्रश्न बनकर रह गया ।।
अब जा रही सीते धरम के धाम से ।
कहने को कुछ रहगया अरे राम से ? ।।
रे ! है नही अपना , जहाँ वो जा रही ।
किन कर्मो का जो श्राप सीते पा रही ? ।।
कुछ भी कहे पर तर्क सारे व्यर्थ है ।
भूतल पर नारी नाम ही अनर्थ है ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
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