|| कथा पुरातन से भूपर ||
उस विह्वल मन के उपर ।
नारी ही नारी की बैरी
कथा पुरातन से भूपर ।।
आँखे लाल , चढ़ी भृकुटी
जिहवा नागन काली थी ।
अहंकार के यौवन में
मदमस्त बड़ी मतवाली थी ।।
जन्मजली , जलजाय कोख
कलमूंही पर ममता विशाल ।
नाज और नखरा किसपर
है किस्मत में नही लाल ।।
किसपर छोड़ा काम काज
बता सास बैठी दासी ।
पनघट तट तू घट ले जा
तड़प रही कब की प्यासी ।।
सुनरही खरी - खोटी वो
बैठी पीड़ा छाया में ।
बीतरहा कोई पूछे
माँ की दुर्बल काया में ।।
जच्चा हाथो में घड़ा लिए
ले आँखों में अश्रुपात ।
चली अभागन जल भरने
विह्वल उर बलहीन गात ।।
निशि - वासर श्रम टूट गई
थकी नही , मुस्काती थी ।
दो रोटियाँ , पाते वहीं
सुख अपवर्ग का पाती थी ।।
असह यातना की पीड़ा
एक दिन तन झकझोर दिया ।
ले गगरी पथ टूट गई
गिरी और दमतोर दिया ।।
रोकर जब वह खूब थकी
निन्दिया लेके सुला लिया ।
आँखे खुलने से पहले
माता को प्रभु बुलालिया ।।
मातृ हीन यह शिशु जीवन
है, ऐसा दुःख बड़ा नही ।
जीवन की यह वो पीड़ा
घाव किसी का भरा नही ।।
महा - राक्षसी के कर में
शिशु का जीवन नही रहा ।
माँ - बेटी दो चली गई
न्याय मूक कुछ नही कहा ।।
अन्तर्यामी घट घट वासी
हो किस घट ,न जान सका ।
कहते कृपालू दीन बन्धु
अबला को पहचान सका ? ।।
अपलक आँखे , देखोगे
कबतक बन तुम शिला मूर्ति ।
खंडित होगा भक्ति - भाव
करपाओगे नही पूर्ति ।।
तेरे मेरे रिश्ते का
धब्बा जो , क्या धुल पाएगा ?।
तुम निष्ठुर , निर्दयी , कौन ?
कृपा - सागर कहलाएगा ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
mob - 9997313751
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें