वर्तमान युग में हम देखते है यत्र - तत्र सर्वत्र नारी पुरातन युग में जिस चौखट पर खड़ी थी, वह आज भी वही है । शिक्षा और आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने पर भी वह पराधीन है, निराश्रित है , उसका अपना कोई अस्तित्व नही है। यह सब देखकर मन में भाव उठते है , जैसे दुःख उसका आँचल है , आँसू उसके जीवन की साँस है , वह निरीह है । " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता " वाक्य मेरे अन्दर शूल बनकर चुभता है । पुरुष अपने स्वार्थ वश जीवन रूपी मशीन के दूसरे पहिए को हमेशा उपेक्षा की दृष्टि से देखता आया है ।
सम्पूर्ण भारत भूमि किसी भी बात को लेकर एक हो या न हो, किन्तु " नारी उत्पीड़न " के मामले में यह सांस्कृतिक एकता बरकरार है । दुःख की बात तो यह है जब स्वयं नारी ही नारी के जी का जंजाल बने तो बुद्धि भी जड़ हो जाती है । किंकर्तव्य विमूढ़ की भाँति रह जाता है इन्सान।
स्व0 पिता श्री से विरासत में मिले संस्कार व स्वयं एक चित्रकार होने के कारण मैं " सत्यम शिवम् सुन्दरम "
के पथ पर अग्रसर हो सका इस विषय पर काव्य सृजन के लिए लालायित होकर मैने बालचापल्य किया है । इस प्रयास पर मै कुछ विद्वानों द्वारा उपहासास्पद हूँगा या नहीं
ये मै नही जानता । " मन: पूतम समाचरेत " अकरणात्
मन्द करणम श्रेय: " के सिद्धान्त पर आरूढ़ हो उचित या अनुचित का साहस हुआ है । किसी कार्य में सयत्न होकर
सफलता लाभ करना बड़े भाग्य की बात है , किन्तु सफलता न मिलने पर सयत्न होना निन्दनीय नही कहा जा सकता ।
मै नमन उस नारी को करता हूँ , जिसने सर्व प्रथम पुरुष को " पति परमेश्वर " का नाम दिया । नमन उस पुरुष को जिन्होंने नारी को शक्त्ति का रूप मान कर लक्ष्मी कहा ।
" अश्रुपात " मनोरंजन मात्र नही अपितु यह एक क्राँति है , परिवर्तन है , जिसे केवल न्याय चाहिए ।
इस पुस्तक को पढ़कर अगर किसी पुरुष ने नारी को समझा और सम्मान दिया तो मै इस प्रयास को सफल समझूँगा । अश्रुपात उस नारी को सम्मान देता है , जो अपनी मर्यादा में है ।
रेवती रमण झा "रमण"
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