|| ये जिन्दगी भी खाक है ||
बदल दो तुम समाज को
घुँघट को अब उतार के ।
री ! सबल सर्व शक्तियाँ
क्यो बैठ गई हार के ।।
मानवता के मस्तिष्क में
अब दानवता व्यापत है ।
जो , खामोशीयाँ रही
तो ये सभ्यता समाप्त है ।।
है व्यक्त दुःसह वेदना
असंख्य आत्म दाह से ।
आर्त नाद नारियो का
है रक्त के प्रवाह से ।।
बन्द करो ये ख़ुदकुशी
रे कायर का काम है ।
ये शक्ति जाके दो उसे
जो जिन्दगी गुलाम है ।।
री ! जलादो उस दुष्ट को
अब तुम स्वयं न जल मरो ।
जो आज जुल्म कर रहा
उसी पे जुल्म तुम करो ।।
अबला न तेरी जिन्दगी
पुरुष न वो प्रधान है ।
रे जिसमे दया धर्म हो
वो जिन्दगी महान है ।।
राज चल रहा है यहाँ
या ये कहूँ मजाक है ।
इस पाप के लिए स्वतन्त्र
ये जिन्दगी भी ख़ाक है ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा " रमण "
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