" माँ "
|| अश्रुपात ||
ममता का मार्तण्ड धरा पर , एक ही माँ का दिल है ।
शेष सभी खधोत यहाँ पर,जिस की छवि मुश्किल है ।।
गर्भावस्था की पीड़ा नित , जो हँसकर झेल रही है ।
अश्रुपात का पीकर जल , जो गम से खेल रही है ।।
दसो माह के आनन से नित , यही वेदना आती ।
दस तन्त्री का तार देख , दोनों आँखे भर जाती ।।
दुस: प्रसव की उस पीड़ा में , पुनर्जन्म लेती है ।
असह वेदना सहकर कुल को , कुल - दीपक देती है ।।
नया जन्म पाकर जो पाती , उस अमोल घड़ी को ।
लिख पाया क्या कोई अबतक,उसकी दुखद कड़ी को ।।
रहकर भूखी पेट सदा , बच्चो को दूध पिलाती ।
सूखे वस्त्रो में लेके शिशु , जो गीले में सो जाती ।।
मन मोहनेवाली ये जो , सघन दीपो की माला ।
तन - बाती को सदा जला कर , देती रही उजाला ।।
माँ की मूरत को पहचानोगे, वो कब दिन आएगा ।
रे ! भारत भूमि गर्व से मस्तक , ऊँचा करपाएगा ।।
माँ की सेवा से बढ़कर , अरे कोई कर्म नही है ।
उस चरण - रज - कण के आगे , कोई धर्म नही है ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
|| अश्रुपात ||
ममता का मार्तण्ड धरा पर , एक ही माँ का दिल है ।
शेष सभी खधोत यहाँ पर,जिस की छवि मुश्किल है ।।
गर्भावस्था की पीड़ा नित , जो हँसकर झेल रही है ।
अश्रुपात का पीकर जल , जो गम से खेल रही है ।।
दसो माह के आनन से नित , यही वेदना आती ।
दस तन्त्री का तार देख , दोनों आँखे भर जाती ।।
दुस: प्रसव की उस पीड़ा में , पुनर्जन्म लेती है ।
असह वेदना सहकर कुल को , कुल - दीपक देती है ।।
नया जन्म पाकर जो पाती , उस अमोल घड़ी को ।
लिख पाया क्या कोई अबतक,उसकी दुखद कड़ी को ।।
रहकर भूखी पेट सदा , बच्चो को दूध पिलाती ।
सूखे वस्त्रो में लेके शिशु , जो गीले में सो जाती ।।
मन मोहनेवाली ये जो , सघन दीपो की माला ।
तन - बाती को सदा जला कर , देती रही उजाला ।।
माँ की मूरत को पहचानोगे, वो कब दिन आएगा ।
रे ! भारत भूमि गर्व से मस्तक , ऊँचा करपाएगा ।।
माँ की सेवा से बढ़कर , अरे कोई कर्म नही है ।
उस चरण - रज - कण के आगे , कोई धर्म नही है ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
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