|| मेरा कुल श्री मन्य हुआ ||
खोल किताबे देख रही थी
नया सुनहरा सपना ।
पराधीनता को तोडूगी
होगा जीवन अपना ।।
नील क्षितिज को छूकर मै
उस मंजिल तक जाऊँगी ।
अपनी बुद्धि के बल पर नव
जीवन स्वर्ग बनाऊँगी ।।
मैया बोली , क्यो री बिटिया
राज चलाएगी पढ़ के ।
हम तिरिया का,अबला जीवन
ना जा पाएगी बढ़ के ।।
चूल्हा चौका , भांडे बर्तन
में किस्मत को घिसना हैं ।
खाकर गम नित पीकर आँसू
हँसकर चक्की पिसना है ।।
हम औरत की जात , लात-
मर्दों के नीचे रहना है ।
खाके डण्डा,सुनकर गाली
गुस्सा हरदम सहना है ।।
पढ़ा लिखा होगा दुल्हा री
हम निर्धन के लिये कहाँ ।
रोटी चुपड़ी,चैन की निंदिया
हम दुखियन के लिये कहाँ ।।
देख रही तू , गगन चूमता
दानव रूप दहेज यहाँ ।
मै मर्दों की हवस पूर्ति हूँ
मेरा निज अस्तित्व कहाँ ।।
मैया मोरी,तू अति भोली
बोली बिटिया,यूँ तन के ।
अपनी बुद्धि के बल पर मै
अब दिखलाऊँगी बन के ।।
मूढ़ मर्द का मन मर्दन कर
निज अधिकार को पाऊँगी ।
फिर से बन झाँसी की रानी
चण्डी रूप दिखाऊँगी ।।
धर्म नही , मर्दों की जूती
चाट काट दिन रैन रहो ।
है अधर्म , निर्दोष दण्ड को
तुम बैठी चुपचाप रहो ।।
बहुत सही तू , नही सहूँगी
और अधिक इस पीड़ा को ।
इन हाथो से मै काटूंगी
उस कड़वे - मुख खीरा को ।।
अब मर्दों से कदम मिलाकर
साथ - साथ में जाऊँगी ।
पथ - कंटक को काट छांट
नव जीवन सफल बनाऊँगी ।।
आंसू आँखों में भरकर
माँ बोली ,जीवन धन्य हुआ ।
पावन - आँचल हुआ आजरी
मेरा कुल श्री मन्य हुआ ।।
रचनाकार
रेवती रमण झा "रमण"
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