dahej mukt mithila

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सोमवार, 6 जुलाई 2015

विद्यापतिक साहित्यमे सामाजिक सन्देश



   
  संसारमे एहन बहुत कम कवि होएताह जे जीवनमे एक्कहुटा महाकाव्य लिखनहि विन महाकवि कहबैत होथि। एहन व्यक्तित्व मैथिल कवि कोकिल विद्यापतिए भेलाह। तत्कालीन समयमे विद्वता आ प्रज्ञा प्रकटीकरणक लेल भारतवर्षक एक मात्र माध्यम संस्कृत भाषामे पूर्ण अधिकार रखितहुँ जन–मन–रञ्जनक लेल ‘देसिल वयना सभजन मिट्ठा’ कहि लोकभाषामे रचना परम्पराक शुरुआत कऽ विद्यापति समस्त उत्तर भारतीय आर्यभाषाक प्रथम जनकविक रूपमे उदित भेलाह। जनभाषामे काव्य सृजन परम्पराक पहिल सशक्त डेग उठौनिहार व्यक्ति विद्यापतिए छलाह। हिनके पदचिह्नपर चलैत अवधी भाषामे तुलसीदास ‘रामचरितमानस’सन अमर काव्यक रचना करबामे सफल भेलाह। तहिना ब्रजभाषामे मीरा तथा सूरदास, भोजपुरीमे कबीरदाससन उद्भट कविसभक उदय भेल। तेँ प्रसिद्ध हिन्दी कवि डा. हरिवंश राय बच्चन महाकवि विद्यापतिक मादे लिखलनि अछि—

थे न कबीर, न सूर न तुलसी
और न थी जब बाबरि मीरा
तब तुमने ही मुखरित की थी
मानव के मानस की पीड़ा
      अपन काव्यपुस्तक ‘आरती और अंगारे’ मे विद्यापतिकेँ एहि तरहेँ सम्बोधित कएनिहार डा. बच्चन ‘टूटी–छूटी कड़ियाँ’ में विद्यापतिक महिमाकेँ विशिष्टीकृत करैत एहुना कहलनि अछि— ‘भाषाक क्षमताकेँ भलहि सरहपाद मानैत होथु, भाषाक ओज दऽ रासो कविसभ भलहि जनैत होथि, मुदा भाषाक असली सुआद सभसँ पहिने विद्यापतिए बुझलनि— देसिल वयना सबजन मिट्ठा। विद्यापति हमरालोकनिक सर्वप्रथम परिस्कृत गीतकार थिकाह। संस्कृतक ध्वनि–माधुर्यकेँ ओ पूर्णतया भाषामे उतारैत छथि। हुनका ‘अभिनव जयदेव’ सेहो कहल जाइत छनि। मार्मिकता आ भावक गहिराइमे ओ जयदेव आ रासो कालक शृङ्गारिक कविसभसँ बहुतो आगाँ छथि | 
     
        देसिल वयनाद्वारा मानवीय भावकेँ एते सूक्ष्मतापूर्वक पहिल बेर विद्यापतिए छूबि सकलाह।  साहित्याकाशक देदीप्यमान नक्षत्र महाकवि विद्यापति (ई.सन. १३६०—१४४८) मूलतः शृङ्गारिक एवं धार्मिक प्रवृत्तिक कवि मानल जाइत छथि। मुदा व्यापकतामे देखलापर हुनक रचनाद्वारा समाजमे अनेको सार्थक सन्देशसभक सम्प्रेषण सेहो प्रचुर मात्रामे भेल हमसभ पबैत छी। हुनक चामत्कारिक काव्यप्रतिभेक कारण अवसानक छ सय वर्षक बादहु ओ जन–मन ओ लोक–जीवनमे जीवित एवं परिव्याप्त छथि। सगरमाथापर फहराइत विद्यापतिक ख्याति, सुयश एवं प्रभावकेँ परवर्ती कालक कतेको साहित्यकार समाजमे सकारात्मक सन्देश प्रवाह करबाक लेल उपयोग करैत सेहो देखल गेल छथि। निश्चित रूपेँ एकटा आम व्यक्ति जखन कोनो बात कहैत अछि तँ ओ ओतेक प्रभावोत्पादक नहि होइत छैक जतेक एक प्रतिष्ठित तथा सामाजिक हैसियतप्राप्त व्यक्तिक कहलासँ होइछ। तेँ बादक किछु कवि जे सामाजिक कुरीतिसभकेँ हटएबादिस संवेदनशील छलथि, सेसभ विद्यापतिक नामकेँ भनिताक रूपमे प्रयोग कऽ ओहन सुसन्देशसभक प्रवाह करैतसन पाओल गेलाह अछि। मिथिलामे रहल अनमेल विवाह–प्रथाकेँ निरुत्साहित करबाक गूढार्थ अन्तर्निहित रहल निम्न गीतकेँ एही श्रेणीक एक उत्कृष्ट गीत मानल जा सकैत अछि, जाहिमे तरुणी स्त्रीक अल्प वयसक पुरुषक सङ्ग विवाह भऽ गेलाक बाद उत्पन्न परिस्थितिक वर्णन कएल गेल छैक—

पिया मोर बालक हम तरुणी गे,
कओन तप चुकलहुँ भेलहुँ जननी गे। 
तहिना प्रौढ पुरुषक सङ्ग नवयौवना स्त्रीक विवाह करबाएल जा रहल प्रसङ्गमे कन्याक माए अपन पति आ समाजकेँ उपराग दैत चेतावनीक भाषामे कहैत छथि—
हम नहि आजु रहब एहि आँगन
जौँ बूढ़ होएत जमाए  | 

 एहन अनमेल विवाहक लेल मिथिलाक लोकव्यवहार मोताबिक भाग्यकेँ दोष देबाक सङहि बेटीक पिता तथा घटककेँ सेहो दोषक भागी बतबैत आगाँ कहल गेल अछि—
एक तँ बैरी भेल बीधि–विधाता
दोसर धियाकेर बाप
तेसर बैरी भेल नारद बाभन
जे बुढ आनल जमाए
     यद्यपि उपर्युक्त गीतसभ मैथिल समाजमे विद्यापतिएक गीतक रूपमे समादृत एवं प्रचलित अछि। ओहुना एहन गीतसभक भनितामे ‘भनहि विद्यापति’ लिखल पाओल जाइत छैक। मुदा विभिन्न विद्वानसभक मतानुसार विद्यापतिक गीत कहि सैकड़ो एहनो गीत लोककण्ठमे व्याप्त अछि, जे यथार्थतः विद्यापति नहि लिखने छथि। उपर देल गेल गीतसभक भाषा आ विद्यापतिकालीन मैथिली भाषाक स्वरूपक तुलनात्मक अध्ययन–विश्लेषण कएलासँ सेहो ई बात स्पष्ट होइत अछि। ओना तँ जे गीतसभ विद्यापतिएद्वारा लिखल गेल बातपर कनेको शङ्का नहि छैक, ताहूमे भक्ति आ शृङ्गर रसक गीत मात्र नहि छैक, जीवनकेँ सुमार्गपर लऽ चलबाक लेल अनेको उद्देश्यपूर्ण गीतसभ विद्यापति स्वयं सेहो प्रचुर मात्रामे लिखने छथि।

विद्यापतिक शतप्रतिशत वास्तविक भक्ति आ शृङ्गार रसक गीतसभक सेहो खास उद्देश्य रहैत छलैक। मिथिलाक तत्कालीन अवस्थापर ध्यान देलापर देखल जाइत अछि जे यवनक आक्रमण तथा जल्दी–जल्दी होइत आएल नेतृत्व परिवर्तनक कारण मिथिलाक आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति दिनानुदिन गिरैत गेल छलैक। प्रायः यवन सेना जखन आक्रमण करैत छल तँ ओहिठामक सम्पूर्णप्रायः धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक पूर्वाधारकेँ लतखुर्दनि कऽ जनजीवनकेँ धङरचास कऽ दैत छल। महिलासभकेँ ओसभ अपन पहिल शिकार बनबैत छल। जबर्दस्ती इस्लाम धर्म कबूल करबएबाक काज सेहो ओतबए मात्रामे कएल जाइत छलैक। एहि सभ क्रियाकलापसँ गार्हस्थ्य जीवन छिन्न–भिन्न भऽ जाइत छलैक। लोक अकर्मण्य एवं किंकर्त्तव्यविमूढ होइत गेल छल। एहन अवस्थामे हतास एवं पलायनोन्मुख समाजकेँ पुनः लीकपर अनबाक उद्देश्यसँ तत्कालीन अवस्थामे जीवन गुजाराक मूल कर्मदिस लोककेँ आगाँ बढ़बाक लेल उत्साहित करऽ वला गीतसभ सेहो रचलनि—
बेरि–बेरि अरे सिव, मोञे तोहि बोलञो
किरिस करिअ मन लाए
बिनु सरमे रहिअ, भिखिए पए मङ्गिअ
गुन गउरब दुर जाए
खटङ्ग् काटि हर हर बन्धबिअ
तिरसिल तोड़िअ करु फारे
बसह धुरन्धर लए हर जोतिअ
पाटिअ सुरसरि धारे

        अत्यन्त प्रगतिशील एवं उत्साहवर्धक सन्देश देल गेल एहि गीतमे विद्यापति अपन आराध्य महादेवकेँ किसानक रूपमे ठाढ़ कऽ कहैत छथि— “हे शिव, अपन कर्त्तव्यक पालन नीकजकाँ करी। भीख माङब ने लाज वा शरमक बात छियैक, जे लोकक गुण आ गौरव दुनूकेँ हरि लैत छैक। मुदा अपन काज करबामे कथीक सङ्कोच? तेँ अपन खटङ्ग काटिकऽ हर बनाउ। त्रिशूलकेँ पीटिकऽ फार बनाउ। अपन बसहाकेँ हरमे जोतू। आ, फसलिक सिञ्चन लेल तँ अहाँक मस्तकसँ बहऽ वला गङ्गाक धार अछिए।

      तत्कालीन विषम परिस्थितिमे जनमानसकेँ कर्मशीलताक दिशामे उन्मुख कराएब समाज सचेतक व्यक्तिक सर्वाधिक महत्त्वक काज छलैक। एही समयमे हिन्दू धर्मावलम्बीसभक बीच सेहो शैव, वैष्णव आदि सम्प्रदायमे मानसिक विभाजनक अवस्था छल, जाहिसँ समाजमे विशृङ्खलता आओर बढ़ैत गेल रहैक। एहनमे समान धार्मिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमिक लोकक बीच वृहद एकताक आवश्यकतापर जोड़ दैत विद्यापति कहलनि जे शैव वा वैष्णव परस्पर विरोधी नहि, बल्कि एक्कहि सिक्काक दू पाट अछि। एकरा अपन पदमे विद्यापति एहि तरहेँ अभिव्यक्ति दैत देखल गेल छथि—

भल हर भल हरि भल तुअ कला
खन पित वसन खनहि बघछला

     एहि तरहेँ विभिन्न तरहक प्रहारसँ विशृङ्खलित जनजीवनकेँ सहज बनएबाक हेतु कर्मशीलताक सन्देश आ भक्तिमार्गक अनुसरण मात्र यथेष्ट नहि छलैक, लोक–जीवनमे आस्थाक रस सञ्चार कराएब सेहो ओतबए आवश्यक छलैक। विद्यापतिद्वारा प्रायः जीवनक आरम्भिक चरणमे लिखल गेल शृङ्गार रसक गीतसभ होइक वा तत्कालीन राजासभक आदेशमे लिखल गेल शृङ्गार रसक गीतसभ कतेक सार्थक, कतेक निरर्थक छलैक, से अलग विश्लेषणक विषय अछि। मुदा कालान्तरमे मिथिला राज्य छिन्न–भिन्न भऽ गेलाक बादो शृङ्गारिक गीतसभक रचनाक्रमकेँ ओ जाहि तरहेँ निरन्तरता देलनि, से पूर्णतः सोद्देश्य छल। ओहि समयक आकुल–व्याकुल परिस्थितिसँ आमजनकेँ मुक्त कऽ जीवनकेँ सरस बनएबादिस उन्मुख करएबाक लेल विद्यापति एकसँ एक शृङ्गारिक गीतसभक रचना कएलनि। मुदा कविक महिमा देखी जे हुनक लिखल कतिपय श्रैङ्गारिको गीत अपनामे एकटा इतिहास समटने अछि। महाकवि विद्यापतिक एखनधरि भेटल आ सार्वजनिक भेल करिब १,२०० गीतमेसँ २०० क करिब गीत बादक कविसभद्वारा लिखल आ मात्र भनितामे विद्यापतिक नाम लिखल गेल विश्लेषकसभक कथन छनि। मुदा एहन व्यक्तित्व कम्मे होएत, जकर अधिकांश गीत वा पदसभ कोनो ने कोनो इतिहासकेँ समटने होइक। इतिहासक एकटा घटनाक्रमकेँ बड़ सजीवताक सङ्ग प्रस्तुत कएल गेल विद्यापतिक ई गीत—

सजनि निहुर फुकू आगि।
तोहर कमल भ्रमर मोर देखल, मदन उठल जागि।।
जौँ तोहें भामिनी भवन जएबह, एबह कोनह बेला।
जौँ एहि सङ्कटसौँ जिव बाँचत होएत लोचन मेला।।
भन विद्यापति चाहथि जे विधि करथि से–से लीला।
राजा शिवसिंह बन्धन मोचन तखन सुकवि जीला।।

     कहल जाइत अछि जे उपर्युक्त शृङ्गार गीत विद्यापति अत्यन्त सङ्कटग्रस्त समयमे लिखने छलाह। यवन सेना हुनक प्रिय राजा शिवसिंहकेँ जखन बन्दी बना दिल्ली लऽ गेल तँ विद्यापति अपन कूटनीतिक कौशलक उपयोग कऽ शिवसिंहक बन्धनमोचन करबौने छलाह। एहि क्रममे बादशाहकेँ जखन ई बुझबामे अएलनि जे विद्यापति कवि छथि तँ हुनका अपन कवित्वक परिचय देबाक लेल कहलनि। ओ चूल्हि पजारैत एक सुन्दरीक कवितात्मक वर्णन करैत अपन कवित्वक उत्कृष्ट परिचय देलनि। किंवदन्ती तँ एहनो छैक जे विद्यापतिक आँखिमे पट्टी बान्हि देल गेलनि आ हुनका कहल गेलनि जे चूल्हि पजारैत सुन्दरीक वर्णन करू। केओ–केओ एहि प्रसङ्गमे विद्यापतिकेँ सन्दूकक भीतर बन्द कऽ सूखल इनारक भीतर राखिकऽ एहि स्थितिक वर्णन करबाक लेल कहल गेल बात सेहो कहैत छथि। अवस्था चाहे जे–जेहन रहल होइक, मुदा एतबाधरि निश्चित जे विद्यापतिद्वारा कएल गेल चित्रण अत्यन्त सजीव आ लोमहर्षक छैक। 

       गीतमे ओ कहैत छथि— “सुन्दरी, अहाँ जे निहुरिकऽ चूल्हि फुकैत छी, ताहिसँ अहाँक स्तनरूपी कमल हमर आँखिरूपी भमराक आगाँ देखार भऽ रहल अछि, जाहिसँ कामदेव जागि गेल छथि। आब कहू जे अहाँ भवनमे कखन घूरब ? जँ एखनुक सङ्टसँ बाँचि गेलहुँ तँ अपना दुनूगोटेक नजरिक परस्पर मिलान होएबे करत। विद्यापति कहैत छथि— विधाता सेहो नहि जानि केहन–केहन लीला करैत छथि। राजा शिवसिंह जँ बन्धनमुक्त होएताह, तखने बुझू जे मृततुल्य अवस्थामे पहुँचल एहि कविक प्राण घूरत।”
   
       विद्यापतिक एहन अनेको श्रैङ्गारिक गीत छनि, जाहिमेसँ कतेको अपनामे एकहकटा इतिहासक दस्तावेज अछि तँ कतिपय कविता जीवनकेँ रसमय आ रोमाञ्चक बनएबामे सहायक अछि। विद्यापतिक बहुतो शृङ्गारिक गीतकेँ कामकलाक पाठ सिखौनिहार विज्ञानसम्मत कलात्मक अभिव्यक्तिक रूपमे सेहो लेल जाइत अछि, जे आजुक समयमे सेहो सजीव आ सार्थक अछि। तेँ ई कहब अनर्गल हएत जे विद्यापतिक रचनाक उद्देश्य केवल रास–रङ्ग वा राजा–महाराजाकेँ मनोरञ्जन प्रदान करब छलनि। विद्यापति जन–मनक, लोकजीवनक महाकवि छलाह आ ओ प्रेम एवं आनन्दक मार्गपर चलैत कर्मशील जीवनक पक्षमे अपन लेखनीकेँ निरन्तर प्रवाहमय बनौने रहलाह।


– दुर्गेश झा'लव 
नरही , मधुबनी , 
मिथिला , भारत 

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