पहले अंडा या पहले मुर्गी?
यह प्रश्न तो आपने पहले भी कई बार सुना होगा और इसका उत्तर देने का प्रयास भी
किया होगा परन्तु इसका पूर्णरूप से समाधान शायद ही हो पाया हो. इसका समाधान इतना आसान नहीं है क्योंकि यह प्रश्न ही
अपने आप में बहुत जटिल है. इसलिए
इस प्रश्न के उत्तर को समझ ने से पहले आपको बाह्य एवं सामान्य विचारों से ऊपर उठाना होगा. इसका एक कारण तो यह है कि जब तक हम अपने वाह्य विचारों के जाल में उलझे रहते हैं तब तक हमें सत्य समझ में नहीं आ सकता. सत्य कि समझ तो तभी आयगी जब हमारा मन और बुद्धि शांत होंगे क्योंकि मन और बुद्धि के चंचल रहते हमें वही दिखाई देता है जो ये हमें दिखाना चाहते हैं. कमरे से या परदे से पीछे की चीज हमें तभी दिखाई देगी जब हम इन भौतिक चक्षुओं को बंद करके अंदर के चक्षुओं से देखने का प्रयत्न करेंगे.
कई बार किसी बात को समझने के लिए हमें उदाहरणों का या किसी पूर्व घटना का सहारा लेना पड़ता है. उपरोक्त प्रश्न को समझने के लिए भी
हमें एक ऐसी घटना का सहारा लेना पड़ रहा है जिसकी सत्यता के बारे में कोई वैज्ञानिक ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है परन्तु चूंकि
पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है इसलिए इस पर विश्वास करना पड़ता है यदि कोई विश्वास नहीं करे तो उसकी इच्छा. कहते हैं कि जब यह स्रसठी नहीं थी, सब जगह पानी ही पानी था, सब जगह अंधकार ही अंधकार था, कोई जीव-जंतु भी नहीं था तब एक अद्भुत शब्द की गुंजार हुई (इस शब्द को अनहद शब्द या आदि शब्द कहते हैं). इस शब्द के होने से उस जल में हलचल पैदा हुई और साथ ही साथ प्रकाश भी पैदा हुआ. इस प्रकाश ने जल
की हलचल को विकासक्रम का रूप दिया जिससे चलते उस जल में जैसे ढूध के मथने पर मक्खन ऊपर आ जाता है वैसे ही उस जल के ऊपर भी एक बहुत बड़े आकार का गोला जो सुनहरे रंग का था तैरने लगा. कालांतर में यह गोला जल के सतह पर टिक गया और उस अदृश्य एवं सर्वशक्तिमान शक्ति द्वारा पोषित होने लगा. विकासक्रम की प्रकिर्या के सिद्धांत के अनुसार जब यह अंडा अपनी अवधि पूर्ण होने पर फूटा तो स्रश्ठी का सृजन हुआ.
इस सुनहरे अंडे को हिरण्यगर्भ भी कहते हैं और इसी को इस स्रसठी का उपादान कारण माना गया है. अब आप स्वयं विचार कीजिये कि पहले अंडा आया या मुर्गी आई.
सोनू झा
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