dahej mukt mithila

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शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

.. श्रीसरस्वती स्तुति..







या कुन्देन्दु- तुषारहार- धवला या शुभ्र- वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमन्डितकरा या श्वेतपद्मासना ॥
या ब्रह्माच्युत- शंकर- प्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥॥ १॥॥

दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण ॥
भासा कुन्देन्दु- शंखस्फटिकमणिनिभा भासमानाऽसमाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥॥ २॥॥

आशासु राशी भवदंगवल्लि
भासैव दासीकृत- दुग्धसिन्धुम् ॥
मन्दस्मितैर्निन्दित- शारदेन्दुं
वन्देऽरविन्दासन- सुन्दरि त्वाम् ॥॥ ३॥॥

शारदा शारदाम्बोजवदना वदनाम्बुजे ॥
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥॥ ४॥॥

सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृ- देवताम् ॥
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जनाः ॥॥ ५॥॥

पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्नः सरस्वती ॥
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥॥ ६॥॥

शुद्धां ब्रह्मविचारसारपरमा- माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् ॥
हस्ते स्पाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥॥ ७॥॥

वीणाधरे विपुलमंगलदानशीले
भक्तार्तिनाशिनि विरिंचिहरीशवन्द्ये ॥
कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥॥ ८॥॥

श्वेताब्जपूर्ण- विमलासन- संस्थिते हे
श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे ॥
उद्यन्मनोज्ञ- सितपंकजमंजुलास्ये
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥॥ ९॥॥

मातस्त्वदीय- पदपंकज- भक्तियुक्ता
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय ॥
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण
भूवह्नि- वायु- गगनाम्बु- विनिर्मितेन ॥॥ १०॥॥

मोहान्धकार- भरिते हृदये मदीये
मातः सदैव कुरु वासमुदारभावे ॥
स्वीयाखिलावयव- निर्मलसुप्रभाभिः
शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥॥ ११॥॥

ब्रह्मा जगत् सृजति पालयतीन्दिरेशः
शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावैः ॥
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे
न स्युः कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षाः ॥॥ १२॥॥

लक्ष्मिर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तृष्टिः प्रभा धृतिः ॥
एताभिः पाहि तनुभिरष्टभिर्मां सरस्वती ॥॥ १३॥॥

सरसवत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः
वेद- वेदान्त- वेदांग- विद्यास्थानेभ्य एव च ॥॥ १४॥॥

सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने ॥
विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तु ते ॥॥ १५॥॥

यदक्षर- पदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् ॥
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥॥ १६॥॥

॥ इति श्रीसरस्वती स्तोत्रं संपूर्णं॥॥
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