वट सावित्री व्रत
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध का भी प्रतीक माना गया है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। इस दिन बरगद, वट या पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है । वट वृक्ष के नीचे की मिट्टी की बनी सावित्री और सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यम की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करनी चाहिये । पूजा के लिये जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फ़ूल तथा धूप होनी चाहिये। बट की जड़ में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करना चाहिये। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वट वृक्ष की बारह परिक्रमा करनी चाहिये। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाएं और सूत तने पर लपेटती जाएं। इसके पश्चात सत्यवान सावित्री की कथा सुननी चाहिये, जब पूजा समाप्त हो जाये तब ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलना चाहिये।
ऐसा करने का उद्देश्य यह है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को प्राण दिए, उस समय सत्यवान को पानी पिलाकर सावित्री ने स्वयं वट वृक्ष की बौंडी खाकर पानी पिया था। कहा जाता है सत्यवान अल्पायु थे । नारद को सत्यवान के अल्पायु और मृत्यु का समय ज्ञात था, इसलिए उन्होनें सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी परन्तु सावित्री मन से सत्यवान को पति मान चुकी थी, इसलिए उन्होने सत्यवान से विवाह रचाया।
विवाह के कुछ दिनों पश्चात सत्यवान की मृत्यु हो गई, और यमराज सत्यवान के प्राण ले चल दिए। ऐसा देख सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल दी। पीछे आती हुई सावित्री को देखकर यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया ।
सावित्री बोली - जहां पति है वहीं पत्नी का रहना धर्म है, यही धर्म है और यही मर्यादा, पति को लिये बिना वह नही जायेगी । सावित्री की धर्म निष्ठा से प्रसन्न हो यमराज ने सावित्री के पति के प्राणों को अपने पाश से मुक्त कर दिया । सावित्री ने यमराज से अपने मृत पति को पुन: जीवित करने का वरदान एक वट वृक्ष के ही नीचे पाया था। तभी से महिलाएं अपने पति के जीवन और अक्षत सौभाग्य के लिए वट सावित्री का व्रत करने लगीं, और तभी से इस दिन वट वृक्ष की पूजा की जाती है।
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