dahej mukt mithila

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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

श्रद्धांजलि! प्रो.हरिमोहन झा

 श्रद्धांजलि! प्रो.हरिमोहन झा 

 (18सितम्बर,1908-23फरबरी,1984)

"बसाते तेहन छै जे गोष्ठीमे कवियो

गजल, दादरा आ कब्वाली गबैये

किछु दिनमे इहो देखब  औ बाबू!

जे कवितो संग तबला बजैये।'

       हरिमोहनझा  

अइ कोठीक धान ओइ कोठी:

प्रो. हरिमोहन झा एवं हुनक ‘चर्चरी’

(मैथिली अकादमी पत्रिका,मार्च 1984 एवं अखियासल’, 1995 मे संकलित) 

‘चर्चरी’ नामहिसँ स्पष्ट अछि जे ई कोनो एक विधाक पोथी नहि थिक। जेना चर्चरी एकहि संग विभिन्न व्यञ्जनक सम्मिलित रूप रहितहु, एकटा फूटे स्वाद दैछ, ओहिना प्रो. हरिमोहन झा (1908-23 फरवरी 1984) द्वारा विभिन्न विधामे लिखित रचनाक संग्रह ‘चर्चरी’ सेहो एकटा फूटे स्वाद पाठककेँ दैत अछि। ‘चर्चरी’ मे प्रो. झाक उत्कृष्ट रचनासभ संगृहीत अछि।

‘चर्चरी’ मे विभिन्न उपखण्ड अछि। कथा उपखण्डमे ‘ग्रेजुएट पुतोहु’, ‘मर्यादाक भंग’, ‘ग्राम सेविका’, ‘परिवर्तन’ ‘युगक धर्म’ ‘महारानीक रहस्य’, ‘पाँचपत्र’, ‘सातरंगक देवी’, ‘नौ लाखक गप्प’, ‘तिरहुताम’, 'ब्रह्माक श्राप’, आ ‘तीर्थयात्रा’ अछि। द्वितीय उपखण्डमे ‘अयाची मिश्र’ एवं ‘मंडन मिश्र’ एकांकी अछि। तेसर उपखण्ड अछि छायारूपक। एहिमे अछि- ‘एहि बाटें अबै छथि सुरसरि धार’। चारिम उपखण्ड अछि ‘झाजीक चिट्टी’। एहिमे अछि संगठनक समस्या। पाँचम उपखण्डमे ‘भोलाबाबाक गप्प’, ‘दलान परक गप्प’, चैपाड़ि परक गप्प’ आ ‘पोखरि परक गप्प’ अछि। प्रहसन उपखण्डमे ‘रेलक झगड़ा’ अछि। खट्टर ककाक तरंग उपखण्डमे ‘प्राचीन सभ्यता’, दर्शनशास्त्रक रहस्य’ आ’ मिथिलाक संस्कृति’ अछि।

प्रो. झा गप्प लिखल की कथा, एहिपर वेस विचार आ खण्डन-मण्डन होइत रहल अछि। किछु गोटे प्रो. झाकेँ कथाकार रूपमे मानैत छथि तँ किछु गोटे गप्प विधाक प्रणेता एवं आचार्यक रूपमे। सुधांशु ‘शेखर’ चौधरी प्रो. झाकेँ गप्प-साहित्यक प्रणेता एवं आचार्य मानि लिखैत छथि ‘जाहि वस्तुक आधारपर प्रो. झाक रचनामे कथातत्त्वक हेतु अमर रहताह ओ थिक हिनक गप्प-साहित्य(‘सन्दर्भ’)।’ 

प्रो. श्रीकृष्ण मिश्र प्रो. झाक रचनामे कथातत्त्वक अभाव देखि गप्प-साहित्यक अन्तर्गत मानैत लिखल अछि - ‘प्रो. झा लिखलनि ‘प्रणम्यदेवता’, ‘खट्टर ककाक तरंग’, ‘चर्चरी’, ‘रंगशाला’ - एहि सभमे कथाक अंश बड़ कम अछि। हमरा जनैत ई सभ ने कथा थिक आ ने निबन्ध। ई वास्तवमे गप्प थिक जकरा हरिमोहन बाबू अपन प्रतिभाक बलेँ एक नव साहित्य विधा ( genre) रूपमे प्रचलित कयलनि। हिनक ‘चूड़ा दही चीनी’ वा ‘अलंकार शिक्षा’केँ कथा कहब समुचित नहि बुझना जाइछ। ई रोचक गप्प थिक। ओना जे किछु लिखब तँ ओहिमे सूक्ष्मो रूपमे कथा-वस्तु, चरित्र-चित्रण, घटना, वार्तालाप विचार सभ रहबे करतैक, किन्तु ‘प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति’-  एहि नियमसँ हरिमोहन बाबूक अधिकांश रचना गप्प प्रधान अछि(प्रो. हरिमोहन झा अभिनन्दन ग्रन्थ)।

प्रो. आनन्द मिश्र (मिथिला मिहिर,10 अप्रैल,1977) सेहो प्रो. हरिमोहन झाकेँ कथाकेँ कथासँ बेशी गप्प मानल अछि- ‘हुनक कथा, कथासँ वेशी गप्प अछि, बेस चहटकार, तिक्त, कषाय आदि सभसँ युक्त कोनो चरित्र जावत धरि अतिशय नहि करताह, तावत सन्तोषे नहि होइनि।'

पंरच डा. जयकान्त मिश्र ‘चर्चरी’क एहि कोटिक रचनाकेँ कथा मानैत छथि- Carcari revealed him to be even more successful as a short story writer than as a novelist.' 

प्रो. हरिमोहन झा अपने एहि रचना सभकेँ कथा- साहित्यक अन्तर्गत मानैत लिखैत छथि जे हमर कथा-साहित्यक तेसर मोड़ ‘खट्टर ककासँ प्रारम्भ होइछ।’’ 

पंरच कथा विधाक लेल आवश्यक तत्त्व जखन प्रो. झाक रचनामे तकैत छी जकरा ओ कथा-साहित्यक अन्तर्गत मानल अछि, तँ ओ कथाक अनुरूप नहि भेटैछ। एहि दृष्टिसँ बड़ कम रचना अछि, जकरा कथाक रूपमे अलोचित-विश्लेषित कएल जा सकैछ। इएह स्थिति ‘चर्चरी’क रचनाक संग अछि। किछु केँ बेराए कथाक रूपमे आ शेषकेँ गप्प-साहित्यक रूपमे देखबे विशेष श्रेयस्कर होएत।

प्रो. झा भारतीय वाङमयक प्रखर सर्जनात्मक क्षमता सम्पन्न रचनाकार छथि। एहन प्रखर क्षमता सम्पन्न रचनाकारक लेल बहुत स्वाभाविक छैक जे ओकर अभिव्यक्तिकेँ वहन करबाक क्षमता कोनो प्रचलित विधाकेँ नहि होअए। तखन ओ जे लिखैछ, ओहिसँ कालक्रमेँ स्वतः एकटा नव विधाक जन्म भए जाइछ। ई तँ निर्विवाद अछि जे प्रो. झा पहिल मैथिल रचनाकार छथि जे अपन रचनासँ अधिकाधिक पाठकक निर्माण कएल। हिनक रचनासँ पाठकक एकटा पैघ समुदाय तैआर भए गेल जे सदिखन प्रो. झाक रचनाकेँ पढ़बा लेल उनमुनाइत रहैत छल। एकटा इहो विशेषता प्रो. झामे छल जे ओ हास्य-व्यंग्य प्रिय मैथिल संस्कारक अनुरूप अपन रचनाक धाराकेँ प्रवाहित राखल, अपन पाठकक एहि प्रवाहकेँ अवाधित रखबा लेल ओ हास्यरसक वर्षा करैत रहलाह, पाठककेँ गुदगुदी लगबैत रहलाह, जाहिसँ एक स्वतन्त्र विधाक, गप्प-साहित्यक निर्माण भए गेल।

पूर्वहि लिखल अछि जे मैथिल संस्कारहिसँ हास्य- व्यंग्य प्रिय होइत छथि। मैथिलकेँ ओहन कोनो सामाजिक स्थितिक मोकाविला नहि करय पड़लनि जे लोककेँ संघर्षशील बना दैछ। संघर्षशीतलाक अभाव आ पेटक चिन्तासँ निफिकिर लोकमे गप्पक खेती वेशी होइते छैक। एही स्थितिक प्रतिफल थिक जे एकसँ एक गप्पी मैथिल समाजमे होइत रहलाह अछि। एहन गप्पीक उपस्थितिए सँ वातावरणक जड़ता समाप्त भए जाइत छैक। लोक कान खोलि गप्पक आनन्द लिअ लगैछ। एहन-एहन गप्प सुनि दुखियाक मन बहटारल जाइछ तँ बैसल लोकक हँसी-खुशीमे समय कटि जाइछ। ओ आनन्दित भए कौखन द्विगुणित उत्साहसँ अपन-अपन काजो करए लगैछ। मनोरंजक क्षणक उपयोगसँ थाकल ठेहीआएल मन उत्फुल्ल भए जाइछ। प्रो. झाक गप्प-साहित्य मैथिली साहित्यक पाठककेँ एही प्रकारक आनन्द देलक अछि। स्फूर्ति प्रदान कएलक अछि। समय कटबाक एकटा माध्यम भेल अछि।

प्रो. झाक गप्प-साहित्यक एक खास विशेषता अछि। ई ततेक रोचक आ प्रवाहपूर्ण अछि जे पाठक बिना समाप्त कएने छोड़बा लेल प्रस्तुते नहि रहैछ। हिनक गप्प परी देशक गप्प नहि थिक। ओ जे गप्प कहैत छथि ओ रहैछ मैथिल संस्कृतिक, मिथिलाक समाज आ शास्त्रपुराणक। पाठकक चारूकात पसरल, अथवा घटैत घटनाक संयोजनपूर्ण विनोद आ हास्य व्यंग्ययुक्त प्रभावक शैलीमे रहैत छैक। ‘चर्चरी’मे संगृहीत ‘दलान परक गप्प’, ‘चैपाड़िक गप्प’, ‘घूर परक गप्प’, ‘पोखरि परक गप्प’, ‘प्राचीन सभ्यता’, ‘दर्शनशास्त्रक रहस्य’, ‘मिथिलाक संस्कृति’, ‘सात रंगक देवी’, ‘नौ लाखक गप्प’, ‘महारानीक रहस्य’ आदि एही शैलीमे अछि।

एहि सभ गप्पक माध्यमसँ हरिमोहन बाबू पाठक समुदायकेँ हँसबैत छथि। कौखन तँ ई हँसी हृदय विदारक भए जाइछ। एहि सन्दर्भमे प्रो. जयदेव मिश्र लिखैत छथि जे समाजक जाहि अंगपर श्री हरिमोहन बाबू देखैबाक हेतु हँसैत प्रहार करैत छथिन्ह, ओतय फोंका धरि बहार भए जाइत छैक। एही कारणेँ हिनक हास्य रचना समान रूपसँ सभक हेतु प्रिय नहि बनि सकलन्हि अछि। ई रचना सभ बहुत स्थलपर जीवन विषयक विषमता एवं विद्रूपताक विनोदपूर्ण अध्ययन होएबाक अपेक्षा विद्रूपता, अतिरंजन मात्र प्रतीत होइत छनि। प्रो. हरिमोहन झाक हेतु सभसँ उपर्युक्त प्रसंग तखन अबैत छनि, जखन ओ भोजन अथवा धर्माचरणक प्रसंगकेँ लए केँ लेखनी चलबैत  छथि’ (मिथिलाक हास्य साहित्य, विवेचना, सम्पादकः सुधांशु ‘शेखर’ चौधरी)।  

डा. जयकान्त मिश्रक मत सेहो एही प्रकारक अछि। डा. मिश्रक मतेँ प्रो. झाक कथा-साहित्यमे हँसी तँ उड़ाओल गेल अछि, किन्तु ओही हँसीक माध्यमसँ कोनो बाट देखाइत छैक, से नहि- Harimohan Jha's stories are marred by his obession of finding fault with even some of those things, which form the really noble sublime and good in our culture. While he seeks to shake our confidence in their values, he does not always succeed in offering with any force other alternative values of life.'(History of Maithili Literature, Sahitya Akademi). 

‘चर्चरी’मे प्रो. हरिमोहन झाक सर्वोत्कृष्ट कथा ‘पाँचपत्र’ संगृहीत अछि। पाँच दशकक पति-पत्नीक रागात्मक सम्बन्ध, क्रमशः परिवर्तित होइत दृष्टि आ पारिवारिक दायित्वबोधक जीवन्त कथा थिक ‘पाँच पत्र’। ई पाँचपत्र प्रो. झाक नहि, अपितु मैथिली कथा-साहित्येक एकटा सर्वोत्तम कथा थिक। एहि ‘पाँच पत्र’क प्रसंग कुलानन्द मिश्र (हरिमोहन झा अभिनन्दन ग्रन्थ) लिखने छथि जे ‘अखनो धरि एकटा कोमल आ धड़कैत आ मधुर-चेतना तथा करुण आ उदास नियति बोधक कथाक रूपमे मैथिलीक अन्यतम सफल कथा थिक। एकर अन्तिम पत्रक अन्तमे पुनश्च कहि जोड़ल पाँती जे देवकृष्ण पत्नीकेँ इंगित कए बेटाकेँ लिखने छथि। अद्भुत करुणा आ व्यंग्यक बोध-मोनमे उत्पन्न कए दैछ।

‘चर्चरी’मे प्रो. झाक दू टा एकांकी संगृहीत अछि-  ‘अयाची मिश्र’ एवं ‘मंडन मिश्र’। छओ दृश्यमे समाप्त ‘अयाची मिश्र’ एकांकीमे म.म. भवनाथ मिश्र, प्रसिद्ध अयाची मिश्रक जीवन-दृष्टि, शंकर मिश्रक विद्वता, अतिथि सत्कार, निर्लोभता आदिक दृश्यांकन भेल अछि। दोसर एकांकी ‘मंडन मिश्र’मे शंकराचार्यक मिथिला आगमन, मंडन मिश्रसँ शास्त्रार्थ, विदुषी सरस्वती द्वारा मध्यस्थता, शंकराचार्यक सात वर्षक बाद पुनः आबि, विदुषी सरस्वतीक प्रश्नक समाधान, मंडन मिश्रक संन्यास ग्रहण करब, पत्नी द्वारा सुरेश्वरचार्य नामकरण एवं कर्णफूल उतारि प्रथम भिक्षा देब आदि स्थितिक दृश्यांकन कएने छथि। एहि दुनू एकांकीक माध्यमसँ प्रो. झा मिथिलाक प्राचीन सांस्कृतिक उत्कर्षकेँ प्रस्तुत कए समाजमे उद्बोधन अनबाक प्रयास कएल अछि।

प्रो. हरिमोहन झाक एहि दुनू एकांकीक ऐतिहासिक महत्त्व एहू लेल अछि जे मैथिली रंगमंचक इतिहासमे हुनक पत्नी,  स्वर्गीया सुभद्रा झा मंचपर उतरलि छलीह तथा प्रथम मैथिल महिला रंगकर्मीक रूपमे ख्याति पाओल।

‘चर्चरी’ मे एकटा प्रहसन संगृहीत अछि ‘रेलक झगड़ा’। रेलगाड़ीमे बैसबा लेल कोना कटाउझ होइछ, तकर एहिमे चित्रण विनोदपूर्ण अछि। किन्तु, जखन पोल खुजैछ, परिचय होइछ तँ सम्भावित समधिनि आ सम्भावित सासु-पुतहु पश्चाताप करैत अछि। सम्बन्ध स्थापित होइछ। ‘रेलक झगड़ा’क प्रसंग डा. वासुकीनाथ झा (हरिमोहन झा अभिनन्दन ग्रन्थ) लिखैत अछि जे ‘रेलक झगड़ा’ मे आधुनिक शिक्षाक वायुसँ कनेक सिहकल दू टा परिवारक विवाह-सम्बन्ध स्थिर करबाक क्रममे आकस्मिकताकेँ हास्यपूर्ण अभिव्यक्ति देल गेल अछि। कन्या देखय-देखयबाक हेतु दुनू भावी समधिनि एवं भावी पुतहुक बीच रेलगाड़ीमे विशिष्ट मैथिल पद्धतिसँ झगड़ा होइत अछि। दुनू पक्षक परिचय खुजैत अछि। पश्चाताप प्रकट कएल जाइछ। अन्तमे वरक माए कन्याकेँ अंगीकार करैत छथि। विषयक दृष्टिसँ एहिमे प्रगतिशीलता भेटैत अछि आ शिल्पक दृष्टिसँ हास्यसँ अधिक फैंटेसीक तत्त्व विद्यमान अछि।

‘झाजीक चिट्टी’ उपखण्डमे ‘संगठनक समस्या’ पर सम्पादककेँ पत्र लिखल गेल अछि। काजक दिस कम, किन्तु संस्थाक नामकरणपर विशेष घमर्थन होइत छैक। ओहिपर व्यंग्य अछि। प्रतिकूल विचारधाराक व्यक्ति संगठनक काजमे कोना बाधा उत्पन्न करैत छथि, सेहो देखाओल अछि।

छायारूपक उपखण्डमे ‘एहि बाटे अबै छथि सुरसरि धार’ संगृहीत अछि। एहि छायारूपकक केन्द्र थिक ‘सौराठ सभा’। तिलक-दहेजक उन्मूलन करबा लेल महिला लेकनिक सक्रियताक वर्णन पाँच रीलमे अछि। प्रथम रीलमे तिलक-दहेजक विरोध कएनिहार महिला उपहास्य बनैत छथि। किन्तु क्रमशः जागृति अबैत जाइछ आ पाँचम रीलमे आबि स्वयंवर होइछ। तिलक-दहेजक घृणित प्रथा समाप्त होइछ। प्रो. हरिमोहन झा केहन भविष्य द्रष्टा छलाह, हिनक दृष्टि नारी-जागरण एवं कल्याणक लेल कतेक तत्पर छल, तकर ज्वलन्त प्रमाण थिक ‘एहि बाटें अबैत छथि सुरसरि धार’। जहिआ ई रूपक लिखल गेल, ओहि समयमे ई असंगत छल छे ‘सौराठ सभा’मे महिला लोकनि पैर दए सकतीह। किन्तु गत किछु वर्षमे एहि छायारूपक पहिल रील - महिला संगठन सभामे जाए दहेजक विरोधमे बाजए लगलीह अछि। नारी जागरणक अग्रदूत प्रो. हरिमोहन झाक एहि रचनाक अन्तिम रील कहिआ सत्य होएत तकर प्रतीक्षा अछि। तिलक-विनाशिनी सुरसरि सौराठ मार्गसँ तिलक दहेजक प्रथाकेँ कहिआ आत्मसात कए, लाखो कन्याक बापकेँ बलि होएबा सँ बचबैत छथि, तकर प्रतीक्षा छैक। एहि छायारूपकक कथ्य जहिना सामाजिक एवं समसामायिक अछि, ओहिना प्रस्तुति सेहो आकर्षक। एकर अन्त संगीतमय अछि। संगीतमय अन्त लोकक मन-प्राणकेँ आच्छादित कएने रहैछ-

‘भागू दूर घटक पंजियार

होउ बरागत आब होशियार

आब नहि चलत तिलक रोजगार

नहि केओ टाका गनत हजार

समटू अपन हाट बाजार

एहि बाटे अबै छथि सुरसरि धार।’

प्रो. हरिमोहन झाक कतेको उत्कृष्ट रचना ‘चर्चरी’मे संगृहीत अछि। एहि उत्कृष्ट रचनाकेँ जँ फूटसँ पढ़ल जाइछ तँ ओकर उत्कृष्टता प्रभावित करैत छैक। किन्तु ‘चर्चरी’ मे पड़ि ओ ‘भोलाबाबाक गप्प’मे तेना ने स्पन्दनहीन भए गेल अछि जे ओकर स्वादक पता, तकला सँ लगैछ।

 ‘चर्चरी’क प्रसंग प्रो. निगमानन्द कुमरक कहब छनि (अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन, रचना संग्रह,भाग-4, वैदेही समिति, दरभंगा)  जे आइ जँ मैथिली पाठकगणक बीच ‘चर्चरी’केँ सेहो लोकप्रियता भेटि रहल अछि तँ ई हमरा सभक हीन दृष्टिकोणक प्रमाण दए रहल अछि। जे स्वस्थ व्यंग्य लए श्री हरिमोहन बाबू ‘कन्यादान’सँ यात्रा आरम्भ कएलैनि, बुझाइत अछि जे रस्तेमे साँझ भेल देखि दृक् भ्रमित भए गेलाह। ‘प्रणम्य देवता’ सन उत्कृष्ट व्यंग्य ओ हास्यक खट्टमिठी दोसर नहि भेटल, मुदा ‘खट्टर कका’क संग पड़ि हुनक शास्त्रार्थमे श्रीहरिमेाहन बाबू तेना ने ओझरा गेलाह जे ‘चर्चरी’ धरि अबैत एना लगैत अछि जेना डुमराँवमे ट्रेनक दुर्घटना कए गेल हो, जाहिमे मात्रा हल्ला अर्थात् गप्प आर ठहाकाक किछु बुझाइत अछिये नहि। साहित्यसँ दूर रहि साहित्यकेँ समय कटबाक साधन बूझि जे लोकनि ‘भोलाबाबाक’ चैपाड़िक सक्रिय सदस्य छथि, तनिके मन मोहिनी छथिन्ह ‘चर्चरीदाइ’।

प्रो. हरिमोहन झाक रचनाक मूलस्वर समाजोन्मुख आ उद्वोधनात्मक अछि। परंच, ई समाजोन्मुखता व्यापक नहि अछि। किछु निश्चित निर्धारित क्षेत्र अछि, जाहिपर कलम उठबैत रहलाह अछि। प्रहार कए हँसबैत रहलाह अछि। तेँ प्रो. झाक समाजोन्मुखताक तात्पर्य ई नहि जे समाजमे व्याप्त विषमता आ शोषणपर प्रहार कएल अछि। समाजोन्मुखताक मतलब ई नहि, जे समाजमे व्याप्त आर्थिक दुःस्थिति जन्य विसंगतिक अभिव्यक्ति कएल अछि, प्रो. हरिमोहन झाक समाजोन्मुखताक मतलब नहि जे ओ सामाजक ओहि वर्गक सामाजिक स्थिति अथवा राजनीतिक स्थितिकेँ स्वर देल अछि, जे युग-युगसँ सुविधाभोगी वर्ग आ धन-धान्यपूर्ण व्यक्तिक पैरतर पिचाइत रहल अछि। समाजोन्मुखताक मतलब ई नहि जे हिनक रचना ओहि सामाजिक चेतनाक अभिव्यक्ति थिक जाहिमे भूखक ज्वालामे झरकल, शोषण, उत्पीड़न, सम्बन्धवाद, राजनीतिक सुतार-नीतिक जालमे फँसल लोक, किछु कए जयबा लेल विवश भए जाइछ। अपितु, हरिमोहन बाबूक रचनामे विधि-व्यवहार, शास्त्रीय मान्यता, मिथिला-भाषा आ संस्कृतिक मैथिले द्वारा उपेक्षा अथवा ओकर विकासक प्रति अन्यमनस्कताक अभिव्यक्ति विशेष रुचिपूर्णक भेल अछि। तेँ अधिकांश रचना पढ़लापर विचारक उन्मेष नहि होइछ, पाठक अभिप्रेतपर सोचबा लेल प्रेरित नहि होइछ, वैचारिक मंथन नहि होइछ। अपितु अधिकांश रचना पढ़लापर गुदगुदी लगैछ। कौखन व्यंग्यास्पदपर दया सेहो होइछ, पंरच एक बेर हँसा गेलापर ओकर प्रभाव बिला जाइत छैक।

स्रोत : मैथिली अकादमी पत्रिका, मार्च 1984

एवं अखियासल’1995 मे संकलित।

साभार आदरणीय - Ramanand Jha Raman

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