dahej mukt mithila

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सोमवार, 26 मई 2025

आइये हिन्दू समाज की ओर।

 जो लोग डोनाल्ड ट्रम्प को नायक मानते हुए ईरान पर अमेरिका द्वारा किए गए परमाणु प्रतिष्ठानों पर आक्रमण से आनंदित हो उठे, वे एक मौलिक सत्य को विस्मृत कर बैठे हैं—अमेरिका एक आब्राह्मिक ईसाई मत का अनुयायी राष्ट्र है, जबकि ईरान उसी आब्राह्मिक परम्परा की तीसरी शाखा, इस्लाम के शिया सम्प्रदाय का प्रतिनिधि है। इस्लाम के सुन्नी अनुयायी भी ईरान के प्रति शत्रुता रखते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह संघर्ष किसी 'न्याय' या 'धर्म' की रक्षा हेतु नहीं, अपितु परस्पर आब्राह्मिक सत्ता-प्रवृत्तियों की टकराहट है।

ये तीनों—यहूदी, ईसाई और मुस्लिम सम्प्रदाय—परस्पर विरोधी होते हुए भी एक-दूसरे की सामर्थ्य, दुर्बलता तथा 'नस' को भलीभाँति पहचानते हैं। इतिहास साक्षी है कि ईसाइयत और इस्लाम के मध्य 'क्रूसेड्स' नामक छः भीषण युद्ध हो चुके हैं। अतः जब इनकी आपसी हिंसा पर हमें आनन्द की अनुभूति होती है, तो यह हमारी वैचारिक अपरिपक्वता का द्योतक है।

यदि हम निरन्तर पश्चिमी अवधारणाओं जैसे—समाजवाद, पूँजीवाद, राष्ट्रवाद, साम्यवाद, तथा तथाकथित दाएँ-बाएँ (Right-Left) पंथों को अपने समाज में आयात करते रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब वैश्विक शक्तियाँ हमारे ऊपर भी आर्थिक और सामरिक आघात करेंगी। जिस प्रकार अमेरिका ने रूस के विदेशी मुद्रा भंडार (Forex Reserve) को जब्त किया, उसी प्रकार वह भारत की सम्पत्ति को भी अपनी शक्ति से नष्ट अथवा अपहृत कर सकता है।

1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब अधिकांश भारतीयों की आँखों में एक नया राष्ट्र गढ़ने का स्वप्न था — एक ऐसा राष्ट्र जो सहिष्णुता, विविधता और सांस्कृतिक गौरव का प्रतिनिधि हो। परंतु बहुत कम लोगों ने यह समझा कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने जाते-जाते केवल एक राजनीतिक विभाजन नहीं किया, बल्कि उन्होंने भारत की सभ्यतागत निरंतरता को तोड़ने के लिए “पाकिस्तान” नामक एक स्थायी संकट को जन्म दिया।

ब्रिटिशों ने यह बात भलीभाँति समझी थी कि भारतवर्ष में यदि कोई शक्ति हज़ार वर्षों तक उनकी चुनौती बनी रही, तो वह थी हिन्दू समाज की सांस्कृतिक जीवटता। और यह भी कि इस हिन्दू समाज को स्थायी रूप से कमज़ोर करना है तो उसके पड़ोस में एक ऐसा राष्ट्र खड़ा करना होगा जो सदैव इस्लामी उन्माद से प्रेरित होकर भारत को अस्थिर करता रहे — और यही था पाकिस्तान का निर्माण। यह केवल मुसलमानों के लिए एक मातृभूमि का गठन नहीं था, बल्कि भारत के भीतर एक अंतहीन अस्थिरता का बीज बोना था।

लेकिन उससे भी अधिक गंभीर भूल थी पं. नेहरू और तत्कालीन नेतृत्व द्वारा सम्पूर्ण जनसंख्या स्थानांतरण को न होने देना। जब पाकिस्तान अपने हिस्से में आए करोड़ों हिन्दुओं और सिखों को या तो जबरन धर्मांतरित कर रहा था या हत्याओं द्वारा खदेड़ रहा था, उस समय भारत में यह आशा की जा रही थी कि मुस्लिम अल्पसंख्यक शांतिपूर्वक रहेंगे — एक ऐसी आशा जो इतिहास और व्यवहार दोनों के विपरीत थी।

उस समय जिन्ना और मुस्लिम लीग स्पष्ट कर चुके थे कि वे धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र चाहते हैं। पाकिस्तान बनने का अर्थ था कि भारत हिन्दुओं का राष्ट्र हो — सांस्कृतिक नहीं तो कम से कम राजनीतिक दृष्टि से। किंतु नेहरूवादी नेतृत्व ने “धर्मनिरपेक्षता” की आदर्शवादी सोच के नाम पर यह अवसर गँवा दिया। और आज, उसी ऐतिहासिक भूल का परिणाम है कि भारत के लगभग हर प्रमुख नगर में एक “मिनी पाकिस्तान” जैसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी है — जहाँ न केवल जनसंख्या घनत्व का असंतुलन है, अपितु धार्मिक कट्टरता, अलगाववादी मानसिकता और जिहादी राजनीति का प्रसार भी है।

दिल्ली का शाहीन बाग़, मुंबई की भायखला और मुम्ब्रा, बंगलौर का शिवाजीनगर, हैदराबाद का याकूतपुरा, लखनऊ का हुसैनाबाद, कोलकाता का गार्डन रीच — ये केवल भौगोलिक नाम नहीं हैं, ये उन क्षेत्रों के प्रतीक बन चुके हैं जहाँ भारतीय संविधान का नहीं, बल्कि मज़हबी फतवों का शासन चलता है।

यही नहीं, जनसंख्या संतुलन की दृष्टि से देखें तो अनेक जिलों में मुस्लिम बहुलता के कारण प्रशासनिक और सांस्कृतिक दबाव भी बनते जा रहे हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत के 100 से अधिक जिले ऐसे हैं जहाँ मुस्लिम आबादी 25% से अधिक है, और इनमें से कई जिलों में वह 40–50% तक पहुँच चुकी है।

इतिहास इसका साक्षी है कि जहाँ भी किसी मज़हब की जनसंख्या 30% से ऊपर पहुँची है, वहाँ वे क्षेत्र सांप्रदायिक रूप से अस्थिर हुए हैं, और अंततः पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसे इस्लामी राष्ट्रों में परिवर्तित हुए हैं।

आज जो "मिनी पाकिस्तान" कहे जाते हैं, वे सिर्फ भीड़-भरे इलाके नहीं हैं — वे भविष्य के संभावित शरिया प्रभुत्व वाले क्षेत्र हैं। वहाँ पुलिस, प्रशासन और राजनीति — तीनों पर मज़हबी दबाव दिखाई देता है। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल के कई जिलों में दुर्गा पूजा की अनुमति नहीं मिलती, लेकिन मुहर्रम और ईद पर सड़कों का अतिक्रमण सामान्य माना जाता है।

और जब इन सब तथ्यों के विरुद्ध कोई चेतावनी देता है, तो उसे "घृणा फैलाने वाला", "धर्मांध", या "फ़ासीवादी" करार दिया जाता है — जबकि सच्चाई यह है कि यह चेतावनी देना अब राष्ट्रधर्म बन चुका है।

जब हम किसी मंदिर में आरती करते हैं, जब हम अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं, जब कोई कन्या विवाह के बाद ससुराल जाती है, जब कोई साधक जनेऊ धारण करता है — तब शायद ही कोई सोचता हो कि यही वे जीवन-निष्ठाएँ हैं, जिन्हें आज वैश्विक वैचारिक शक्तियाँ “पुरातनपंथी”, “पितृसत्तात्मक” और “प्रतिगामी” घोषित करने में लगी हैं। यह केवल शब्दों का खेल नहीं है — यह एक पूरी सभ्यता को “असहज और अपराधबोध से भरा” बनाने की रणनीति है। और इस रणनीति का नाम है — कल्चरल मार्क्सवाद।

कल्चरल मार्क्सवाद कार्ल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों से नहीं, बल्कि एंटोनियो ग्राम्शी, थियोडोर अडोर्नो, हर्बर्ट मार्कूज़े जैसे विचारकों से प्रेरित है, जिन्होंने समझा कि किसी भी समाज को केवल क्रांति या हिंसा से नहीं तोड़ा जा सकता — उसके लिए संस्कृति को बदलना पड़ेगा, सोच को उलट देना पड़ेगा, और परंपरा को शर्म का प्रतीक बना देना होगा।

इसी सोच के तहत पश्चिमी विश्वविद्यालयों और मीडिया संस्थानों में Resist – Rebel – Reject (विरोध करो – विद्रोह करो – त्याग दो) का 3R सूत्र तैयार हुआ। यह सूत्र अब भारत के भीतर एक वैचारिक शस्त्र बन चुका है।


Resist (विरोध करो): बच्चों को सिखाओ कि परिवार, धर्म, गुरु-शिष्य परंपरा, त्याग, सतीत्व — ये सब दमनकारी व्यवस्थाएँ हैं।

Rebel (विद्रोह करो): स्त्रियों को अपने परिवार, धर्म और मातृत्व के विरुद्ध खड़ा करो; युवाओं को विवाह संस्था, ब्रह्मचर्य और संयम का उपहास करना सिखाओ।

Reject (त्याग दो): त्याग दो अपनी भाषा, अपनी पूजा-पद्धति, अपने धार्मिक चिह्न, अपने आचार-विचार — और अपना राष्ट्रधर्म।

आज यही “तीन मंत्र” फिल्म, वेब सीरीज़, शिक्षा संस्थानों और सोशल मीडिया के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाए जा रहे हैं। इस प्रक्रिया को "वोकिज़्म" भी कहा जाता है, जहाँ आप अगर अपनी संस्कृति से प्रेम करते हैं तो "रूढ़िवादी", अगर आप अपने धर्म का पालन करते हैं तो "सांप्रदायिक", और अगर आप सनातन मूल्यों की बात करते हैं तो "अंधभक्त" बना दिए जाते हैं।

यही कारण है कि जो हिन्दू युवक अपने धर्म की बात करता है, वह अक्सर आत्मरक्षा की मुद्रा में बोलता है — क्योंकि उसे बचपन से यह सिखाया गया कि “धर्म की बात करना संकीर्णता है”। यह मानसिक गुलामी, मानसिक पराजय का सूक्ष्म रूप है।

हिन्दू समाज को तोड़ने का यह अभियान केवल वैचारिक नहीं, सामाजिक भी है। इस अभियान में वामपंथी शिक्षक, चर्च प्रायोजित एनजीओ, तथाकथित सामाजिक न्यायवादी, और मुस्लिम संगठन एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं। इनका मुख्य लक्ष्य है — हिन्दू समाज को उसकी जाति, लिंग, क्षेत्र और भाषा के आधार पर इतना विभाजित कर देना कि वह कभी भी एक सभ्यता-संगठित शक्ति के रूप में उभर ही न सके।

इस विभाजन की रणनीति साफ़ है:

ब्राह्मणों को ‘शोषक’ घोषित करो, ताकि ज्ञान परंपरा ही नष्ट हो जाए।

क्षत्रियों को सामंती कहकर बहिष्कृत करो, ताकि शौर्य और धर्मरक्षा निषिद्ध बन जाए।

वैश्य वर्ग को पूंजीवादी कहकर दोषी ठहराओ, ताकि आर्थिक शक्ति टूट जाए।

शूद्रों को उकसाकर पूरे धर्म के विरुद्ध खड़ा करो, ताकि समाज में स्थायी विद्वेष बना रहे।

यह वही "वर्ग संघर्ष का मार्क्सवादी मॉडल" है जिसे अब "जातिगत संघर्ष" के रूप में भारत में लागू किया जा रहा है। अंतर बस इतना है कि वर्ग के स्थान पर जाति और पहचान आ गई है, और हथियार की जगह नैरेटिव।

आप यदि ध्यान से देखें तो पायेंगे — भारत में कोई राजनीतिक दल, कोई प्रगतिशील संस्था या कोई वामपंथी बुद्धिजीवी कभी भी ईसाई चर्च या इस्लामी मौलानाओं के पितृसत्तात्मक या रूढ़िवादी रवैये की आलोचना नहीं करता। केवल हिन्दू रीति-रिवाज़ ही उनका निशाना होते हैं। क्यों?

क्योंकि अंतिम लक्ष्य हिन्दू धर्म नहीं, हिन्दू समाज है — और हिन्दू समाज को तोड़ना हो, तो सबसे पहले उसके धर्म को "गिल्टी" बना दो।

सभ्यता तब तक जीवित रहती है, जब तक उसके भीतर संरक्षण की चेतना और प्रतिक्रिया की क्षमता बनी रहती है। और यही दो बातें हैं जो आज भारत और इज़रायल के बीच की सामरिक प्रतिक्रियाओं में एक स्पष्ट अंतर को उजागर करती हैं।

कुछ ही दिन पूर्व कश्मीर की घाटी में आतंकियों ने 26 हिन्दू यात्रियों की निर्मम हत्या की। यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी — यात्रियों से धर्म पूछकर उन्हें गोली मारी गई, जो इस बात का संकेत है कि यह आतंक नहीं, मज़हबी युद्ध था। भारत ने इस पर प्रतिक्रिया दी — लेकिन उस मात्रा और प्रभाव में नहीं, जो एक जागरूक सभ्यता देती है। प्रतिक्रिया सीमित थी, नियंत्रित थी — और प्रतीकात्मक भी।

अब तुलना कीजिए इज़रायल की प्रतिक्रिया से।

2023 में जब हमास आतंकियों ने गाज़ा से हमला किया, सैकड़ों यहूदियों की हत्या की, महिलाओं को अपहृत कर बलात्कार किया और बच्चों को बंधक बना लिया — तो इज़रायल ने पूरे गाज़ा पर जबरदस्त सैन्य प्रहार किया। उन्होंने सिर्फ “बदला” नहीं लिया, बल्कि एक संदेश दिया — कि यहूदी रक्त सस्ता नहीं है, कि हम सभ्यता हैं, और हम अपने हर नागरिक के जीवन के लिए अंतिम साँस तक लड़ सकते हैं।

उन्होंने 13 सौ आतंकियों की हत्या की, 52,000 से अधिक आतंकवादियों को समाप्त किया, और उसके बाद भी ईरान के अंदर घुसकर फोर्डो, नतांज़ और इस्फ़हान जैसे परमाणु केंद्रों को तबाह कर दिया। और आश्चर्य नहीं कि इस सैन्य कार्रवाई में अमेरिका खुलकर इज़रायल के साथ खड़ा रहा, और पाकिस्तान ने भी छुपकर ईरान-विरोधी रणनीति में भागीदारी की, क्योंकि रणनीति केवल वीरता नहीं, चतुराई भी माँगती है।

अब लौटिए भारत की ओर।

जब हमने पुलवामा और उरी के बाद आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक की — तो वह वीरता थी, साहस था। परंतु जब पाकिस्तान जवाबी हमला करता है, और भारत रणनीतिक रूप से ऊपर होते हुए भी "युद्धविराम" स्वीकार कर लेता है — तब सवाल उठता है: क्या हम अपने सभ्यता-संघर्ष को इज़रायल जितनी गंभीरता से लेते हैं?

क्या हमारे लिए हिन्दू रक्त का मूल्य कम हो गया है?

क्या हमारे वीरगति प्राप्त सैनिक केवल समाचार की सुर्खियों तक सीमित रह गये हैं?

क्या हमारे शत्रु हमें इतना पढ़ चुके हैं कि जानते हैं — हम दो दिन गुस्सा करेंगे, फिर चुप हो जायेंगे?

असल में समस्या यह नहीं है कि हमारे पास सैन्य शक्ति नहीं है — समस्या यह है कि हम मानसिक और वैचारिक रूप से संगठित नहीं हैं।

इज़रायल का हर नागरिक जानता है कि वह एक यहूदी राष्ट्र की सभ्यता का रक्षक है — भारत का नागरिक आज भी यह तय नहीं कर पाया कि वह हिन्दू है या केवल भारतीय?

हम यह समझ ही नहीं पा रहे कि धर्मनिरपेक्षता की आत्मघाती परिभाषाएँ, और नैतिकतावादी निष्क्रियता — सभ्यता की रक्षा नहीं करतीं, उसे कमजोर करती हैं।

और इस संकोच में हम भूल रहे हैं कि —

> “सभ्यता उन्हीं की रहती है, जो उसे जीते हैं, बचाते हैं और ज़रूरत पड़े तो उसके लिए लड़ते हैं।”

हमारी दुविधा यह है कि हम राजनीतिक रूप से आक्रामक बनने से डरते हैं, कि कहीं हमें असहिष्णु न कह दिया जाए। जबकि सभ्यता का संरक्षण “टॉलरेंस” से नहीं होता, “ट्राइब्स” बनाकर होता है — जैसे यहूदी बने हैं, जैसे मुस्लिम बनते हैं।

इज़रायल की आक्रामकता और भारत की उदारता के बीच यह अंतर केवल भूगोल का नहीं है — यह हमारी मानसिक स्थिति का प्रतिबिम्ब है। और जब तक हम इस अंतर को नहीं समझेंगे, तब तक हम न तो अपने तीर्थयात्रियों की रक्षा कर पाएँगे, न अपने धर्म की, न अपनी संतानों के भविष्य की है 

विश्व इतिहास हमें यह सिखाता है कि जो मज़हब या संस्कृति स्वयं के भीतर एकजुट होती है, वही दीर्घकाल तक टिकती है, और सामर्थ्यशाली बनती है। आज जब हम अब्राह्मिक परंपराओं को देखते हैं — चाहे वह ईसाई हों, यहूदी हों, या मुस्लिम — तो यह बात अत्यंत स्पष्ट रूप से दिखाई देती है कि विविधता के बावजूद उनका मूल चिंतन, लक्ष्य और अस्तित्व-चेतना एक रहती है।

ईसाई विश्व — कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स के भेद के बावजूद — "क्रिश्चियन नेशन" की अवधारणा को समर्थन देता है।

इस्लाम — शिया, सुन्नी, वहाबी, देवबंदी जैसे अंतर होने के बावजूद — “उम्मा” की एकता में विश्वास करता है।

यहूदी समाज — लिबरल, हसीदिक, रूढ़िवादी भिन्नताओं के बावजूद — इज़रायल की एकता के लिए समर्पित रहता है।

अब आइये हिन्दू समाज की ओर।

यहाँ हमने "विविधता" को इतना महिमामंडित कर दिया है कि वह विखंडन बन चुकी है।

यहाँ ब्राह्मण और श्रमण, आर्य और अनार्य, वैष्णव और शैव, बौद्ध, जैन, सिख, दलित, पिछड़े, लिंगायत, आर्यसमाजी, सनातनी — सब अपनी अलग पहचान लेकर खड़े हैं, लेकिन "हिन्दू" नाम से कोई एक बौद्धिक, वैचारिक या राजनीतिक चेतना खड़ी नहीं हो पाई है।

सनातन धर्म को यदि किसी प्रतीक में रूपांतरित करना हो, तो उसके लिए वटवृक्ष से अधिक उपयुक्त कुछ नहीं हो सकता। यह वटवृक्ष केवल एक पेड़ नहीं, अपितु भारत की आत्मा का मूर्त रूप है — जिसकी जड़ें अत्यंत गहरी हैं, शाखाएँ असंख्य हैं, और प्रत्येक पत्ता एक परंपरा, एक जीवन दृष्टि, एक साधना का प्रतीक है। यह वटवृक्ष काल के झंझावातों में भी अडिग खड़ा रहा है क्योंकि उसकी जड़ें उस चित्त में धँसी हुई हैं जहाँ वेदों का अनादि स्वर गूँजता है, उपनिषदों का आत्मज्ञान प्रकाशित होता है और लोक की मिट्टी में रची-बसी परंपराएँ जीवित रहती हैं।

यह सनातन वटवृक्ष कोई एक मत नहीं, कोई एक सम्प्रदाय नहीं — वह एक जीता-जागता चेतन तंत्र है, जिसमें ब्राह्मण की वैदिक यज्ञीय परंपरा भी है, और श्रमण की ध्यानशील मौन साधना भी। कहीं शंकराचार्य का अद्वैत है, तो कहीं महावीर का अपरिग्रह। कहीं गीता का कर्मयोग है, तो कहीं बुद्ध का क्षणवाद। यह वैदिक और अवैदिक, शास्त्रीय और लोक, मूर्त और अमूर्त, सगुण और निर्गुण — सबको एकसूत्र में बाँधने वाली वह जीवनदृष्टि है, जिसमें विरोध नहीं, केवल विस्तार है।

किंतु आज एक योजनाबद्ध प्रयास के अंतर्गत इस वटवृक्ष की शाखाओं को एक-दूसरे से काटने का षड्यंत्र चल रहा है। बौद्ध को ब्राह्मण-विरोध का प्रतीक बना दिया गया, जैन को हिन्दू धर्म से पृथक ठहराया गया, सिखों के भीतर अलगाव की आग भड़काई गई, और आदिवासियों को बताया गया कि वे हिन्दू कभी थे ही नहीं। इस सबके पीछे वही विचारधारा सक्रिय है जो हिन्दू समाज को आत्मविस्मृति की ओर ले जाकर उसे सभ्यता विहीन भीड़ में बदल देना चाहती है।

परंतु यह स्मरण रहे — यह सब शाखाएँ उसी सनातन वटवृक्ष की उपज हैं। महावीर, बुद्ध, नाथ, संत, कबीर, गुरु नानक, लिंगायत, सिद्ध — ये सब भारत की आत्मा से जन्मे हैं। इनकी जड़ें इसी भूमि में हैं, इन्हें पोषक तत्व इसी सनातन चेतना से प्राप्त होते हैं। इन्हें जब इस मूल से काटा जाएगा, तो वे भी निर्जीव हो जाएँगे और भारत भी।

यह समय का आह्वान है कि हम अपनी विविधता को पुनः एकता में बदलें। हमें यह समझना होगा कि बौद्ध, जैन, सिख, लिंगायत, सरना, वैष्णव, शैव, शक्त, वेदांती, तांत्रिक — ये सभी हिन्दू हैं, क्योंकि ये सभी इस वटवृक्ष की ही शाखाएँ हैं। इन सबको एक वैचारिक छतरी के नीचे लाना, केवल रणनीतिक आवश्यकता नहीं है — यह सनातन धर्म की आत्मरक्षा का अनिवार्य पथ है।

जिन्होंने मजहब के नाम पर एक किताब, एक पैगंबर और एक पंथ के अनुशासन से वैश्विक सामर्थ्य खड़ी कर ली, उनके सामने भारत जैसी जीवंत और बहुआयामी संस्कृति तब तक टिक नहीं सकती, जब तक वह स्वयं को टुकड़ों में बाँटती रहे। हमें यह स्वीकार करना होगा कि संघर्ष अब केवल बाह्य नहीं, आंतरिक है — आत्म-चेतना बनाम आत्म-त्याग का, स्मृति बनाम विस्मृति का, धर्म बनाम मत का।

यह विखंडन अचानक नहीं हुआ — यह एक सुव्यवस्थित योजना के अंतर्गत पनपा।

पहचान की राजनीति: विभाजन का औज़ार

1960 के दशक से भारत में एक नई राजनीति जन्मी — पहचान की राजनीति, जिसमें व्यक्ति की धार्मिक, जातीय, भाषायी, क्षेत्रीय और लैंगिक पहचान को राष्ट्र, संस्कृति और सनातन से ऊपर रखा गया। इसमें मुख्य भूमिका निभाई वामपंथी विचारकों और चर्च समर्थित संगठनों ने।

इनका उद्देश्य यह था कि हिन्दू समाज को केवल तोड़ा नहीं जाए, बल्कि उसे खुद ही अपनी पहचान से घृणा करने के लिए तैयार किया जाए।

ब्राह्मण को "दमनकारी" बताया गया, ताकि वह धर्मशास्त्र और संस्कृति से दूरी बनाए।

शूद्रों को यह बताया गया कि धर्म ने उन्हें उत्पीड़ित किया, इसलिए धर्म त्याग दो।

आदिवासियों को कहा गया कि तुम हिन्दू हो ही नहीं — "तुम तो प्रकृति पूजक हो, अलग सरना कोड माँगो।"

बौद्ध, जैन और सिख समुदायों को यह सिखाया गया कि उन्हें ब्राह्मणों ने ग्रंथों से मिटा दिया — इसलिए “हिन्दू धर्म तुम्हारा शत्रु है”।

सरना कोड, लिंगायत आंदोलन और चर्च की भूमिका

आज झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में आदिवासी समाज के भीतर “सरना धर्म” को अलग मान्यता दिलाने का आंदोलन चल रहा है। यह कोई आत्मनिर्भर सांस्कृतिक प्रयास नहीं, बल्कि चर्च समर्थित रणनीति है — जिसका उद्देश्य है आदिवासी समाज को हिन्दू धर्म से कानूनी और भावनात्मक रूप से काट देना।

इसी प्रकार कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को “हिन्दू नहीं” बल्कि “एक स्वतंत्र धर्म” घोषित करने का षड्यंत्र किया गया। इसके पीछे भी चर्च और कांग्रेस समर्थित बुद्धिजीवी तंत्र सक्रिय था।

बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ने दलितों को बौद्ध बनाया, परंतु उन्होंने कभी हिन्दू धर्म को विधर्मी या शत्रु नहीं कहा। किंतु आज "दलित बौद्ध विमर्श" के नाम पर युवाओं को ब्राह्मण-विरोधी घृणा सिखाई जा रही है, और यह बताया जा रहा है कि “हिन्दू धर्म उन्हें मानसिक गुलामी में रखता है।” इस विचार को प्रचारित करने के लिए पैसे, मीडिया, फिल्म और अकादमिक जगत में योजनाबद्ध कार्य हो रहा है।

वामपंथी "वर्ग संघर्ष" का नया संस्करण: जातिगत विद्वेष

मार्क्सवाद में "बुर्जुआ बनाम सर्वहारा" का संघर्ष था, परंतु भारत में यह "ब्राह्मण बनाम दलित", "ऊँच-नीच बनाम आरक्षण", "मंदिर बनाम अंधविश्वास" में बदल दिया गया। और ये सब कुछ हुआ — "सामाजिक न्याय", "मानवाधिकार", और "समता" के नाम पर।

आप देखेंगे कि जब-जब कोई सनातन मूल्यों की बात करता है — उसे “मनुवादी”, “ब्राह्मणवादी”, “सामंती” कहकर खारिज किया जाता है। लेकिन यही लोग इस्लामिक कट्टरपंथ या ईसाई मतांतरण पर मौन रहते हैं।

क्यों?

क्योंकि इस पूरे विमर्श का उद्देश्य हिन्दू समाज को आत्मग्लानि में डुबो देना है। ताकि वह न तो अपनी पहचान पर गर्व करे, न अपने धर्म का साहस से पालन करे, और न ही अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए खड़ा हो।

  वामपंथप्रेरित शिक्षण संस्थान अपने पाठ्यक्रमों में नवीन कथानकों की रचना करते हैं, जिनका लक्ष्य हिन्दू समाज को पितृसत्तात्मक एवं ब्राह्मणवादी ठहराकर उसके सांस्कृतिक स्वरूप का विघटन करना होता है। दुर्भाग्यवश, हम स्वयं ब्राह्मण एवं श्रमण परंपराओं, वैदिक एवं अवैदिक दर्शनों को सनातन धर्मरूपी विराट वटवृक्ष की शाखाओं के रूप में स्वीकारने के स्थान पर, उन्हें खण्डित करने का प्रयास करते हैं। हम भिन्नता के बाह्य स्वरूप को देखकर मूल की एकता को नकारते हैं। जबकि सत्य यह है कि समस्त वैदिक, अवैदिक, लोकपरंपराएँ, दार्शनिक दृष्टियाँ – सभी सनातन वटवृक्ष की अभिन्न शाखाएँ हैं।

भाषा, प्रांत, जाति, नस्ल आदि के नाम पर जो संघर्ष और विभाजन खड़े किए जा रहे हैं, उनके मूल में भी अब्राह्मिक मत और उनके पोषक वामपंथी विचारधाराएँ ही हैं। हम एक लक्ष्यविहीन, दिशाहीन समाज की भाँति व्यवहार कर रहे हैं क्योंकि हमें अपने धर्म, उद्देश्य, और कर्तव्यों का बोध ही नहीं है। इसी अज्ञानवश हम अपने शास्त्रों – वेद, उपनिषद, स्मृतियाँ, पुराण और आचारपरंपरा को त्याग कर, आयातित विचारधाराओं का अनुकरण करने लगे हैं।

इस आत्मविस्मृति के कारण हम प्रत्येक युद्ध हारते जा रहे हैं। हमें न स्वधर्म का बोध है, न शत्रुबोध, न ही परिस्थिति की सम्यक् समझ। हम दीर्घकालिक दृष्टि से सोचने की अपेक्षा क्षणिक प्रतिक्रियाओं में उलझे रहते हैं। इसी कारण जब अमेरिका ईरान के परमाणु ठिकानों पर आक्रमण करता है, तब हम हर्षित होते हैं, यह विस्मृत कर कि यदि यही कृत्य भारत के विरुद्ध हो जाए तो क्या होगा?

वस्तुतः हम पिछले पंद्रह शताब्दियों से एक सतत् सभ्यता युद्ध में संलग्न हैं। परन्तु विडम्बना यह है कि हम इस युद्ध को अल्पकालिक राजनैतिक विमर्श के चश्मे से देखते हैं, जबकि इसकी आवश्यकता है एक दूरदर्शी, संगठित, और समर्पित सांस्कृतिक योजना की।

शांति की स्थापना के लिए शक्ति आवश्यक है। यदि हम 'विश्वगुरु' बनने का स्वप्न संजोते हैं, तो हमें आर्थिक, सैन्य, सामाजिक, एवं राजनैतिक शक्तियों में समर्थ होना ही पड़ेगा। हमारे शास्त्रों में वर्णित चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – को अपने जीवन और समाज के संचालन का आधार बनाना होगा। इन्हीं की आधारभूमि पर हम इस दीर्घकालिक सभ्यता संघर्ष में विजय प्राप्त कर सकते हैं और भारतमाता को परम वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित कर सकते हैं।

Deepak Kumar Dwivedi

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