शनिवार, 30 जून 2012

गजल-५७


साँच प्रेमक जीवन यात्रा अन्नत होएत छै
ऋतू सभ में प्रेम सतत बसंत होएत छै

प्रेमक पथ पर काँटों फुल बनि जाएत छै
दुश्मन भलें दुनिया प्रेम नै अंत होएत छै

एक दोसरक मर्म स्पर्शक नाम छै प्रेम
प्रीतम कें मर्मक आभास तुरंत होएत छै

प्रेम में दागा देब से सोचब नै कियो कहियो
प्रेमक नोर बनि अँगोर ज्वलंत होएत छै

वर्ण-१७
रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट

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