गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

भिक्षुक ✍️ दीपिका झा

 


तपती सूरज की गर्मी में, 

कुदरत की थोरी नर्मी में, 

वृक्षों की छाँव तले बैठा, 

एक भिक्षुक राह निहार रहा.....। 

इस राह में राही दिखता था, 

जिनसे जीने का रिश्ता था, 

अब वो भी घर में है बैठा, 

कुदरत ने ऐसा प्रहार किया......। 

नऽ चाह मेरी थी महलों की, 

उत्तम परिधान नऽ गहनो की, 

बस भूख की उठती ज्वाला को, 

कुछ मिला तो उससे शांत किया.....।

उसमें भी तुझको हे भगवन,

क्या नऽ पिघला कभी तेरा मन, 

क्या सोच समझ कर तूने प्रभु, 

मुझ निर्धन को ये संताप दिया.....।

इस रुठी सी सूनी नगरी में, 

जहाँ थे सब अफरा-तफरी में, 

बेजान से सब हैं बन बैठे, 

किस शत्रु ने ऐसा आघात किया... ? 

वैसे भी कम क्या दूरी थी, 

ढेरों सबकी मजबूरी थी, 

ये कैसा ग्रहण लगाया प्रभु, 

किस घात का ये प्रतिघात किया......?

हमसे मुंह मोड़ के थे बैठे,

नऽ जाने कब से थे रुठे,

पर,और तो तेरा था प्यारा, 

जिनसे हम आश लगाए थे......। 

जीने की अब तू राह दिखा, 

हे हम निर्धन के कृष्ण सखा, 

कर इस धरती को फिर वैसे, 

जिस कृपा की हम साये में थे........।।

_✍️ दीपिका झा

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

दीपिका झा - ✍️

 चाहे सहस्त्रों वर्ष है बीत गए,

पर राजनीति वैसी ही है।

पुत्र मोह में अंधा बना है सब,

राष्ट्रमोह की ऐसी-तैसी है।

अब न कुछ अंतर है बचा यहां,

इस कलयुग और धृतराष्ट्र युग में।

बस,तब का मंत्री शुभचिंतक था,

अब चाटुकार भरें हैं इस युग में।

तब नेत्रहीन नृप देखता था,

हर पाशा जिसको वह फेकता था।

किस क़दम का क्या प्रतिफल होगा,

बंद नेत्रों से सब देखता था।

अब नेत्रवान नृप अंधा है,

जो सेवा को समझा धंधा है।

तब तो एक विदुर ने चेता दिया,

राष्ट्र हित क्या है वो बता गया,

अपने कर्तव्य को करते हुए,

नृप के कर्तव्य को बता गया।

अब ना वो विदुर ना द्वापर है,

ना शुभचिंतक यहां, बस चाकर है।

सच से यहां समुचित दूरी है,

जो कर्तव्य है वो,मजबूरी है।

सत्ता, पुत्र मोह बस ज़रूरी है,

जनता की आश अधूरी है।

वह विदुर तो परम धर्मात्मा था,

मानव के रूप परमात्मा था।

जो ज्ञानी था, राजनीतिज्ञ था,

दूरदर्शी था,देशभक्त भी था।

वह बोला,मुंह भी खोला,

पर मृतात्मा की तब भरमार थी।

सब त्याग के रण को छोड़ चला,

जब चंहुओर भयंकर हाहाकार थी।

जहां विदुर जैसे शुभचिंतक से,

महाविनाश, संग्राम न रुक पाया।

किसी चुप्पी का प्रतिफल था शायद वो,

जहां ज्ञानी का ज्ञान न रंग लाया।

यह सीख लो कलयुग के विदुरों,

न अन्याय को देख आंखें मूंदो।

द्रौपदी चीरहरण हो या द्युद भवन,

अन्याय को यथाशीघ्र रौंदो।

उठती चिंगारी को न सुलगने दो,

विकराल रूप न पकड़ने दो।

द्वापर के विदुर से सीख के,

न किसी डर से आंखें मूंदो।

हो कड़वी बातें पर सच्ची हो,

जनहित के लिए पर अच्छी हो।

करो विरोध उस देशद्रोही नृप का,

अधर्मी और पुत्र मोही नृप का।

जो लिए रूप धृतराष्ट्र, द्रोण,कृप का।

यदि विरोध नहीं अब करोगे तो,

रणभूमि फिर से तैयार होगा।

जिसमें दुराचारी तन का विनाश होगा ही,

पर सदाचारी आत्मा पे भी प्रहार होगा।

नाम :- दीपिका झा

नैहर (जन्मस्थान) :- पोखरौनी (मधुबनी)

सासुर:- बसौली (मधुबनी) 

नानीगांव :- नवगांव (दरभंगा)

विगत पंद्रह साल सं पुणे (महाराष्ट्र) में रहि रहल छी।