तपती सूरज की गर्मी में,
कुदरत की थोरी नर्मी में,
वृक्षों की छाँव तले बैठा,
एक भिक्षुक राह निहार रहा.....।
इस राह में राही दिखता था,
जिनसे जीने का रिश्ता था,
अब वो भी घर में है बैठा,
कुदरत ने ऐसा प्रहार किया......।
नऽ चाह मेरी थी महलों की,
उत्तम परिधान नऽ गहनो की,
बस भूख की उठती ज्वाला को,
कुछ मिला तो उससे शांत किया.....।
उसमें भी तुझको हे भगवन,
क्या नऽ पिघला कभी तेरा मन,
क्या सोच समझ कर तूने प्रभु,
मुझ निर्धन को ये संताप दिया.....।
इस रुठी सी सूनी नगरी में,
जहाँ थे सब अफरा-तफरी में,
बेजान से सब हैं बन बैठे,
किस शत्रु ने ऐसा आघात किया... ?
वैसे भी कम क्या दूरी थी,
ढेरों सबकी मजबूरी थी,
ये कैसा ग्रहण लगाया प्रभु,
किस घात का ये प्रतिघात किया......?
हमसे मुंह मोड़ के थे बैठे,
नऽ जाने कब से थे रुठे,
पर,और तो तेरा था प्यारा,
जिनसे हम आश लगाए थे......।
जीने की अब तू राह दिखा,
हे हम निर्धन के कृष्ण सखा,
कर इस धरती को फिर वैसे,
जिस कृपा की हम साये में थे........।।
_✍️ दीपिका झा